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________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। वाह्याभ्यन्तर संग त्याग जिन मुद्राधार भये अविकारी। ज्ञानानन्द स्वरूप मगननित तिन जिन पथ का होहु विहारी उत्तम ब्रह्मचर्य। पर वनिना तजो बुधिवान युगम भव दुख देन हारी प्रगट लखहु सुजान । टेक कुगति वहन सु सकल गुण गण गहन दहन समान। . सुयश शशि को मेघमाला सर्व भोगन वान ॥१॥ एक छिन पर दार रति सुख काज करत महान । फरत अति सफल नरक दुख सहत जलधन मान ॥२॥ अन्य रामा दीप में है सुलभ परत मजान । यहाँ ही दण्डादि भोगत पुन कुगति दुखदान ॥३॥. स्वदारा विन नारि जननी सुता भगिनी मान। करहि वांछा स्वप्न मैं नहिं धन्य पुरुष प्रधान ॥ ४॥ परबधू मन वचन तेंतज शील धर अमलान । स्वर्ग सुख लह पुन विहारी होहि अवंचल थान ॥५॥ जिन वाणी की स्तुति। . करों भक्ति तेरी हरा दुख माता भ्रमण काटेक अकेला ही हूँ मैं कर्म सब आये सिमटके। लिया है मैं तेरा शरण अब माता सटक के॥१॥ समावत है मोकों कर्म दुख देता जनम का करो०॥३॥ दुःखी हुमा भारी भ्रमत फिरता जगत में। सहा जाता नाही अकल घबड़ाई भमणं में .. करों क्या मा मेरी चलत बस नाहीं मिटन का ।। करों ॥२॥ सुनो माता मेरी, अरज करताहूँ दरद में।. . . . . . .
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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