SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७० जैन- ग्रन्थ-संग्रह । भोग्य | वसुविधिपूजाकर चलोइन्द्र ! दुन्दुभीबार्जेसुरभयां नन्द ॥ ८ ॥ नरपुहिमिलायरंजामहेन्द्र । सब विधिले भक्ति करीसतेन्द्र | फेसोबहुनन्दनकरहिएव । किरपालभनेंजिनचर णसेव ॥ १ ॥ धन्ता । सम्यक्त्वगढ़ावे ज्ञान बढ़ावे विविधभांति स्तुति करऊ । जिनवर मनध्यावे शिव पद पावे भव समुद्रदुस्तरतिरक्ऊ । इत्याशीर्वादः । 1 ॥ इति धारें नयमाकलहित सम्पूर्णम् ॥ जन्मकल्याणक पूजा | दोहा दोष अठारह रहित प्रभु, सहित सुगुण क्ष्यालीस । तिन सब की पूजा करों, आय तिष्ट जगदीश ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदर्हत्परमेष्टिन् ! अत्र अवतर! अवतर ! संघौषट् । ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट् चत्वारिंशदगुणसहित श्रीमदईपरमेष्टिन् ! अत्र तिष्ट विष्ट । ठः ठः । . ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितं ष्ट्र त्वारिंशदंगुणसहित श्रीमदर्हत्परमेष्टन् ! अत्रममसन्निहिता भव भव । वषट् अष्टक । ( द्यानतरीयकृत नन्दीश्वर द्वोपाष्टक की चाल । ).. शुचिक्षीरउदधिक नीर, हाटक भृंग भरा । तुमपदपूजों गुणधीर, मेटो जन्मजरा ॥ हरि मेरुसुदर्शन जाय, जिनवर न्हौन करें ।.. हम पूर्जे इन गुण गाय, मंगल मोद धरें ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादावरहित षट् चत्वारिषद्गुणं सहित श्री
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy