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________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। २६७ - - घननं धननं घनघंट पर्ने । दुमदं द्वमदं मिरदंग सजें। गगनांगणगर्भगता सुगता।ततता ततता अतता वितताक्षा धृगतां धुगतां गति वाजत है।सुरताल रसाललुछाजत है। सननं सननं सनन नभमैं । इकरूप अनेक जु धार भमैं ॥७॥ करनारसुचीन पजायतु हैं। तुमरीजस उनलगावतु हैं। करतालचि फरतालधर । सुरताल विशाल जु नाद करें। इन आदि अनेक उछाहभरी। सुरमकि फर प्रभुजी तुमरी। तुमही जगजीवनकेपितु दो। तुमही दिन फारणके हितहा तुमही सय विघ्न विनाशन हो। तुमही निज आनंदभासन हो। तुमहीं चितचिंतितदायफ हो जगमाहिं तुमीसबलायकहो।१० तुमरे पनमंगलमाहि सही। जिय उत्तम पुण्य लियौ सय ही। हमको तुमरी सरनागत है। तुमरे गुनमैं मन पागत है ॥१६॥ प्रभुमा हिय आपसदावसिये।जबलों बलुकर्म नहीं नसिये। तबलातुमध्यान हिये वरतो तचलौंधुतचिंतन चित्तरतो॥१२॥ तवलींवत चारित चाहत हों तबलौं शुभ भाव सुगावत हों। तपटींसतसंगति नित्य रही। तवलौंममसंजम चित्तगहो॥१३ जबलीनहिनाश फरों अरिको। शिवनारिष समताधरिको। यह धो नवली हमको जिनजी। हम जाचत हैं इतनीसुनजी॥१४ छंद धत्तानन्द । श्री वीर जिनेशा नमित सुरेशा, नाग नरेशा भगति भरा। 'वृन्दावन ध्या' वांछित पा शर्मवरा ॥ १५॥ ॐ ही श्री वर्धमान जिनेन्द्राय पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। दोहा। श्री सनमति के जुगल पद, जो पूजहि धर प्रीति ! वृन्दावन सो चतुर नर, लहै मुक नवनीत ॥१६॥
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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