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________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। २५१ श्री सम्मेदशिखरपूजाविधान। दोहा। सिद्धक्षेन तीरथ परम, है उत्कृष्ट सु थान ॥ शिखर सम्मेद सदा नमी, होय पाप की हान ॥१॥ अगनित मुनि जहं ते गए, लोक शिखिर के तीर। तिनके पद पंकज नमो, नासै भव की पीर ॥२॥ अडिल्ल छद। है उडमल यह क्षेत्र सु मति निर्मल सही। परम पुनीत सुठोर महा गुन की मही ॥ सकल सिद्धि दातार महा रमनीक है। चन्दौ निजसुख हेत अचल पद देत है ॥३॥ सोरठा। शिखिर सम्मेद महान | जग में तीर्थ प्रधान है। महिमा अद्भुत जान । अल्पमती मैं किम कहो ॥४॥ पद्धड़ी छद। सरस उन्नत क्षेत्र प्रधान है। अति सु उज्जल तीर्थ महान है। करहि भकिसुजेगुनगाइकै । वरहि शिवसुरनरसुखपाइ। अडिल्ल छन्द।। सुर हरि नरपति आदि सुजिन वन्दन करें। भवसागर ते तिरे नहीं भवधि परें । सुफल होय जी जन्म सुजे दर्शन करें। जन्म जन्म के पाप सफल छिन में ररें॥ पद्धडि छन्द। श्री तीर्थकरजिन घर सुवीस । अरु मुनि असंख्य सवगुननईस। पहुंचे जह से केवल सुधाम । तिन सबकी अव मेरी प्रणाम ॥७॥
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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