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________________ जैन - ग्रन्थ-संग्रह | २०६ छियालीसघन सजु साज भुव । मंक छियालीस सिरलो कहिकुव भेद छियालीस अंतर तपवर । छियालीस पूरन गुनजिनवर ॥१४॥ अडिल्ल । मिथ्या तपन निवारन चंद समान हो । मोहतिमिर चारनको कारन भान हो ॥ काल कपाय मिटावन मेघ मुनीश हो । 'द्यातन' सम्यकरतनत्रय गुनईश हो ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवभ्यो पूर्णाऽघं निर्वपामि ॥ (पूर्णायके वाद विसर्जन करना चाहिये ) अति श्रीजिनेन्द्रपूजा समाप्ता । सरस्वती पूजा । दोहा । जनम जरा मृतु छ्य करे, हरै कुनय अड़रीति । भवसागरों ले तिरें, पूर्जे जिनवचमीति ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिन मुखोद्भवसरस्वतिवाग्वादिनि ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । अत्र मम सन्निहितेा भवभव । । वषट् । त्रिभंगी । छीरोदधि गंगा, विमल तरंगा, सलिल अभंगा, सुखगंगा । भरि कंचन भारी, धार निकारी तृखा निवारी, हिंत चंगा ॥ तीर्थंकरकी धुनि, गनधरने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । सो जिनवरंबानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनं मानी, पूज्य भई ॥ १ ॥
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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