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________________ २०२ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। निर्वपमि ॥६॥ अथ प्रत्येक अर्ष। चौपाई। अधोलोक जिनागमसाख । सात कोडि अरु चहतरलाख ॥ श्रीजिनभवनमहा छबि देइ । ते सव पूजौं वसुविध लेइ ॥१॥ ___ॐ ह्रीं मध्यलोकसम्बन्धिसप्तकोटिद्विसप्ततिलक्षाकत्रिम श्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अध्यं निर्वपामि ॥१॥ मध्यलोकजिनमन्दिरठाठ । साढ़े चारशतक अरु आठ॥ ते सब पूजा अर्घ चढ़ाय । मनवचतन प्रयोग मिलाय ॥२॥ । ॐ ह्रीं मध्यलोकसम्बन्धिचतुःशताष्टपञ्चाशतश्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अर्घ्य निर्वपामि ॥२॥ अडिल। उर्द्धलोकमाहिं भवनजिन जानिये। लाख चौरासी सहल सत्यानव मानिये ॥ ताप धरि तेईस जजौं शिरनायके । कंचनथालमझार जलादिक लायक ॥३॥ ॐ ह्रीं ऊर्द्धवलोकसम्बन्धिचतुरशीतिसप्तनवतिसहस्त्र.. त्रयोविंशतिश्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अर्घ्यम् ॥ ३ ॥ गीताछन्द । वनुकोटि छप्पनलाख ऊपर, लहससत्याणक मानिये। सतच्यारौं गिन ले इक्यासी, भवनजिनवर जानिये ।। तिहुँलोकभीतर सासते, सुर असुर नर पूजा करें । तिन भवन को हम अर्घ लेक, पूजि हैं जगदुख हरॆ ॥४॥ * ॐ ह्रीं त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटिपटपंचाशलक्षसतन:.
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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