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________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। हो देवशाखगुरुसमूह ! अत्र अयर अवतर संघीपट। . . ॐ हीं देवशालगुरुसमूह ! अन तिष्ठतिष्ठ । ॐही देवशालगुरुसमूह अत्र ममसन्निहितो भवभववपर गीता बन्द सुरपति उरण नरनाथ तिनकर, चन्दनीक सुपदप्रमा। अति शोभनीक सुवरण उज्जल, देख छवि मोहितसभा ॥ वर नीरक्षीर समुद्रघटमार,मय तमु बहु घिधि नवं । अरहंत श्रुतसिद्धांतगुरुनिरग्रन्थ नित पूजा रचू ॥१॥ दोहा-मलिन वस्तु हर लेत सब, जलस्वभाव मलछीन। . जासों पूजे परमपद, देषशास्त्र गुरु तीन ॥१॥ ... ही देवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ जे त्रिजग उदरमभार मानी, तपत अति दुद्धर खरे। तिन अहितहरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे ॥ तभ्रमरलोभित घाण पावन, सरसचन्दन घसि सचूं। अरहंत श्रुतसिद्धांतगुरुनिरग्रंथ नितपूजा रचूं ॥२॥ दोहा-चन्दन शीतलता करे, तपतवस्तु परवीन । ::: जासों पूजो परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥२॥ ... ही देवशास्त्रगुरुभ्यो संसारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामोति स्वाहा ॥२॥ . यह भवसमुद्र अपार तारण, के निमित्त सुविधि उई। अति दृढ़ परमपावन यथारथ, भक्ति पर नौका सही। उजल अखंडित सालि तंदुल-पुज धरि नयगुण ज~। "अरहंतश्रुतिसिद्धांतगुरु निरग्रंथ नितपूजा रचू॥३॥
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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