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________________ ge जैन-अन्य संग्रह। - यो कलेश हिय धार मरणकर, चारों गति भरमायो। सम्यादर्शन शान तीन ये, हिरदेमें नहिं लायो॥६॥ अव या अरंज कर प्रभु सुनिये, मरणसमय यह मागो। रोग जनित पीड़ा मत होऊ, अरु कषाय मत जागो ये मुझ मरणसमय दुखदाता, इन हर साता कीजे । जो समाधियुत मरणहाय मुझ, अरु मिथ्यागद छोजा॥ यह तन सात कुधात मई है, देखत हो धिन आवे । चर्म लपेटी ऊपर सोहै, मीवर विष्टा पावे॥ अति दुर्गध पावन सो यह, मूरख प्रीति वढावे।। देह विनाशी यह अविनाशी, नित्यस्वरूप कहावे ॥ . यह तन जीर्ण कुटीसम मेरो, याते प्रीति न कीजे। नूतन महल मिले फिर हमको, यामें क्या मुझ :छीजे। मृत्यु होनसे हानि कौन है, याको भय मत लायो। समता से जो देह वजोगे, तो शुभ तन तुम पावो TER मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, इस अवसर के माहीं। जीरण तनले देत नयो यह, या सम साऊ नाहीं । या सेनी तुम मृत्युसमय नर, उत्सव अतिही.कीजै। क्लेशभावको त्याग सयाने, समताभाव धरीजै ॥ १० ॥ जो तुम पूरव पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई। 'मृत्युमित्र विन कौन दिखावे, स्वर्ग सम्पदा भाई ॥ राग द्वेषको छोड़ सयाने, सात व्यसन दुखदाई। अन्त समय में समता धारो, पर भव पन्य सहाई ॥१२॥ कर्म महा दुठ वैरी मेरो तासेती दुख पावे। . .तन पिंजरे में बंध कियो मुझ, जासों कौन छुडावे ॥ 'भूख.तया दुख आदि अनेकन, इस.हो.तनमें गाढ़े। 'मृत्युराज अव आप दयाकरं तन पिंजरसे काढ़े ॥१॥
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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