SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-अन्य संग्रहा जैही मामयपदप्राप्तये देषशास्त्रगुरुभ्यो मक्षवान् निर्वामि । परिपुष परमारों को गोरे विकास और र पार पडावे. विनीतमव्याजषियोधवान् पर्यान् सुचर्याकयनकर्यान्। कृन्दारविन्दप्रमुखैः प्रसूनैर् जिनेन्द्रसिद्धान्तमतीन् यजेऽहम् ॥२॥ ॐ ही कामबाणविध्वंसनाय देवशालगुरुभ्यः .पुष्पं फलं निर्वपामि॥ . बदि विधीवो साग, बादान, स्वावलीमा पहाना हो. वो नीचे विधा सोपोर पर पड़ा, तुभ्यद्विमुल्यन्मनसाऽप्यगम्यान कुवादिवादाऽल्खलितप्रभावान फलैरलं.मोक्षफलामिसारैर जिनेन्द्रसिधान्तयतीन बजेऽहम् ॥३ हो मोक्षफलप्राप्तये देवशाखगुरुभ्यः फळं निर्षपामि । दि विसीको घर्ष पढ़ापा तो वो नीर सिया रतीब नत्र पोलर पड़ावाचदिए. ". .:... . .. सद्वारिंगन्धाक्षतपुष्पजातैर् नैवेद्यदीपामलधूपन्न। फविचित्रैर्धनपुण्ययोग्यान जिनेन्द्रसिद्धान्त यतीन यजेश केही अनयपदप्राप्तये. देवशासगुरुभ्योऽय :समर्पयामि। उपयुक चार प्रकार के द्रव्यों में से जो द्रव्य हो उसी द्रव्य काश्लोक मंत्र पढ़करबह द्रव्यचढ़ाना चाहिए। तत्पश्चात् नीचे लिखी स्तुति पढ़ना चाहिए। .:. : .
SR No.010017
Book TitleJain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandkishor Sandheliya
PublisherJain Granth Bhandar Jabalpur
Publication Year
Total Pages71
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy