SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्पादकीय जैन साहित्य जिस प्रकार साहित्यकी अन्य विविध धाराओंसे परिपुष्ट है, उसी प्रकार उसमें वैज्ञा निक व शास्त्रीय साहित्यकी भी कमी नहीं है । व्याकरण, छन्द, ज्योतिष, गणित आदि विषयोंपर अनेक प्राचीन जैन ग्रन्थ पाये जाते हैं जो भारतीय साहित्यके अभिन्न अंग हैं और जिनका अध्ययन किये बिना किसी भी विषयका ज्ञान परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता । किन्तु दुर्भाग्यतः वह सब साहित्य अभी तक भी प्रकाशित व सुलभ नहीं किया जा सका। इस दिशा में भारतीय ज्ञानपीठ जो प्रयत्न कर रहा है वह स्तुत्य है । । किन्तु यह इतिहास प्रसिद्ध व्याकरण अभी काशीसे इसका एक संस्करण निकला था भारतीय व्याकरण शास्त्र में जैनेन्द्र व्याकरणका एक प्रमुख स्थान है। जैन साहित्य में तो इसकी ख्याति है ही, किन्तु अन्य मतावलम्बी शास्त्रकारों ने भी उसका उल्लेख, शाकटायन और पाणिनि जैसे अतिप्राचीन और सुविख्यात वैयाकरणोंके साथ-साथ किया है। इसकी दो सूत्र परम्पराएँ पाई जाती हैं और उसपर बारह सहस्र श्लोक प्रमाण महावृत्ति भी उपलब्ध है तक पूरा प्रकाशित नहीं हो सका । लगभग चालीस वर्ष पूर्व जिसमें इसके पाँच अध्यायों में से केवल तीन अध्याय ही प्रकाशित हुए थे। बहुत कालसे वह संस्करण भी अप्राप्य है । इस प्रकार जिज्ञासु संसार इस ग्रन्थकी परिपूर्ण आवृत्तिके लिए दीर्घकालसे तृषातुर हो रहा था। हर्षका विषय है कि इस महान् त्रुटिकी प्रस्तुत संस्करण द्वारा भले प्रकार पूर्ति हो रही है। इसमें पाठ-संशोधनार्थ काशी और पूनासे प्राप्त अनेक प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया गया है और अभयनन्दि कृत पूरी महावृत्ति भी सम्मिलित है । इस व्याकरण के सम्बन्ध में समस्त ज्ञातव्य विषयोंका परिचय इसके साथ प्रकाशित श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमी लेख एवं विद्वद्वर डॉ० वासुदेवशरणजी अग्रवालकी भूमिका में आ गया है। प्रेमीजीका लेख मूलतः बहुत पहले, जब वह काशीका प्रथम संस्करण निकला था तब ही ( सन् १९२१ में ) लिखा गया था । इसका संशोधित रूप सन् १९४२ में उनके 'जैन साहित्य और इतिहास' शीर्षक संकलनमें प्रकाशित हुआ था । जिसका द्वितीय संस्करण सन् १९५६ में प्रकाशित हुआ है । प्रस्तुत 'लेखमें इस समय तक इस ग्रन्थ व ग्रन्थकर्त्ता के विषय में जो कुछ ऐतिहासिक बातें ज्ञात हो चुकी हैं उनका निर्देश आ गया है । डॉ० अग्रवाल जी व्याकरणशास्त्र के, विशेषतः उसके ऐतिहासिक पक्षके, प्रकाण्ड पण्डित हैं, जिसका प्रमाण उनका 'पाणिनिकालीन भारतवर्षं ' ग्रन्थ विद्यमान है। उन्होंने जैनेन्द्रमहावृत्तिके सूत्रों और उनकी महावृत्तिका सूक्ष्म आलोडन करके जो अनेक ऐतिहासिक तथ्य -रत्नोंका आविष्कार किया है वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। उनकी ओर हम पाठकोंका ध्यान विशेष रूपसे आकर्षित करना चाहते हैं । For Private And Personal Use Only हीरालाल जैन आ० ने० उपाध्ये
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy