SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ हमारी दृष्टि में अभीतक सबसे प्राचीन यही ग्रन्थ है, जिसमें यणव्यवधान-सन्धि का साक्षात् उल्लेख किया है। अागे वृत्तिकारने महाभाष्योत वकारके मंगलार्थत्वका खण्डन किया है। हमारे विचारमै 'मङ्गलार्थः प्रयुज्यते' लेखमैं पतञ्जलिका 'मंगल' का वह भाव नहीं है जो जनसाधारणमें प्रसिद्ध है। अपितु यहाँपर अध्येता छात्रोंका मंगल अभिप्रेत है। इसकी व्याख्याने स्पष्ट कहा है-अध्येतारश्च मंगलार्था यथा स्युः । अध्येतानोंका मंगल लक्षण ज्ञानसे ही सम्भव है। महावृत्ति मध्यमध्यमें त्रुटित-यद्यपि महावृत्तिका यह संस्करण पाँच हस्तलेखोंके आधार छपा है, परन्तु इसमें अनेक स्थलोपर कई-कई सूत्रों की व्याख्या खण्डित है। देखो पृष्ठ २८, ३१७, ३५८। इससे स्पष्ट है कि ये पाँचों हस्तलेख किसी एक ही मूल प्रतिको प्रतिलिपियाँ हैं। अतः इसकी पूर्तिके लिए अन्य हस्तलेख प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिए । जैनेन्द्र व्याकरण तथा महावृत्तिका मुद्रण आजसे ४६ वर्ष पूर्व काशीकी लाजरस कम्पनीकी ओरसे सन् १९१० में महावृत्ति सहित जैनेन्द्र व्याकरण का मुद्रण प्रारम्भ हुआ था। इसके सम्पादक थे, विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी। इसका मुद्रण तृतीय अध्यायके द्वितीय पादके ६०वे सूत्र तक ही होकर रह गया । तब से यह परमोपयोगी ग्रन्थ अधूरा ही रहा । यह परम सौभाग्यका विषय है कि भारतीय ज्ञानपीठ काशीने इस ग्रन्यरत्नको प्रकाशमें लानेका महान् प्रयत्न किया। उसोका यह फल है कि ४६ वर्षके अनन्तर यह ग्रन्थ पूग छपकर प्रकाशमैं आया है। इसके लिए उक्त संस्था अत्यन्त धन्यवादको पात्र है। इस संस्थाने इसी प्रकारके अनेक दुर्लभ ग्रन्थोंका प्रकाशन करके समस्त भार तीयों, विशेषकर जैनमतानुयायियोंका महान् उपकार किया है। हमारी यही कामना है कि यह संस्था भविष्यमें भी इसी प्रकार अपना कार्य करनेमें समर्थ हो, दिन दूनी रात चौगुनी फले फूले। महावृत्तिका नूतन संस्करण-भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित महावृत्तिका यह संस्करण निस्सन्देह महान् परिश्रमका फल है। इसके सम्पादनमै ५ हस्तलेखोसे सहायता ली गई है। इतना प्रयत्न करनेपर भी इसके सम्पादन में कुछ कमियाँ रह गई हैं। उनकी ओर भी संकेत कर देना हम उचित समझते हैं, जिससे अागामी संस्करण में उसका परिमार्जन हो सके । क-अनेक स्थानोंपर उद्धृत जैनेन्द्र सूत्रोंके पते देने रह गये हैं। यथा-पृष्ठ ११५०२-जेरिति दीत्वम्-'जे' ४।३।२३४ का सूत्र है, यहीं पृष्ठ पं० १३-शास इत्येवमादिषु-शास' यह ४/४/३३ का प्रतीक है। ख-वृत्तिमै उद्धृत उद्धरणोंके पते देने रह गये। यथा-पृष्ठ २४ पङ्क्ति २६–'एति जीवन्तमानन्दः'। यह रामायण सुन्दरकाण्ड सग ३४ श्लोक ६ का तृतीय चरण है। पृष्ठ ११६ पं०६ पर निर्दिष्ट 'बाहलक प्रकृतेस्तनुदृष्टेः' कारिका महाभाष्य ३।३।१ की है। इसी प्रकार ११२।१२१ सूत्रपर उद्धृत कारिकाएँ भी महाभाष्य को हैं। ग-कई स्थानौपर कुछ अधिक सावधानता वर्ती जाती तो अनेक पाठ ठीक हो सकते थे। यथा-पृष्ठ ११६ पं० ३ पर मुद्रित 'अण्डः । जुकृसवृङः' पाठ 'अण्डो जुकृमृडः' चाहिए। पृष्ठ ८५० ५-६–'कृतः। कृतवान् । भूतवर्तमाने...'। यहाँ 'कृतः। कृतवान् । “तः" [२।२।८५] भूत इति वर्तमाने ....." १. यद्यपि शाकटायन लघुवृत्ति [पृष्ट २३] में यह नियम उल्लिखित है। उसका काल अनिश्चित है। अमोघवृत्तिमें इसका उल्लेख है या नहीं यह हमें ज्ञात नहीं। २. महाभाष्यकी पंक्तिका यह अभिप्राय हमें महावृत्तिके प्रकाशमें ही समझमें आया । For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy