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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ ४३ अर्थात्-जैनेन्द्र व्याकरण सन् ६७८ [= ७३५ वि०] के समीप लिखा गया। २-श्री प्रेमी जीने अनेक प्रमाण उपस्थित करके देवनन्दीका काल सामान्यतया विक्रमकी षष्ठ शताब्दी निश्चित किया है। देखो इसी ग्रन्थके साथ मुद्रित उनका लेख] । ३-श्री आई० एस० पवतेने अपने 'स्टक्चर अाफ़ दी अष्टाध्यायी' में लिखा है 'महामहोपाध्याय नरसिंहाचार्यने कर्णाटक कवि चरितके प्रथम भागके प्रथम संस्करणमें पूज्यपादको ईस्वी सन् ४७० [=५२७ वि०] में बताया है और दूसरे संस्करणमैं सन् ६०० [=६५७ वि०] का। परन्तु मुझे २१।१२।१९३३ को लिखे एक प्रनमें लिखा है कि पूज्यपाद ४५० ई० =५०७ वि०] के आसपास हैं। ४-हमने अपने व्याकरण शास्त्रके इतिहास में श्री प्रेमीजी द्वारा उद्धृत प्रमाणोंके आधारपर प्राचार्य पूज्यपादका काल विक्रमकी षष्ठ शताब्दीका पूर्वाद्ध माना था। अब हम उसे ठीक नहीं समझते। विक्रमकी षष्ठ शताब्दीसे पूर्व-अब हमें जो नूतन प्रमाण उपलब्ध हुआ है, उसके अनुसार आचार्य पूज्यपाद विक्रमकी षष्ठ शताब्दीसे पूर्ववर्ती हैं, यह निश्चित होता है। कात्यायनने एक विशिष्ट प्रकारके प्रयोगके लिए नियम बनाया है--परोक्षे च लोकविज्ञाते प्रयोक्तुर्दर्शनविषये [महा० ३।२।३१] । अर्थात्-ऐसी घटना जो लोकविज्ञात हो, प्रयोक्ताने उसे न देखा हो, परन्तु प्रयोक्ताके दर्शनका विषय सम्भव हो [अर्थात् वह घटना प्रयोक्ताके जीवन-कालमें घटी हो] उस घटनाको कहनेके लिए भूतकाल में लङ् प्रत्यय होता है। पतञ्जलिने महाभाष्यमैं इस वार्तिकपर उदाहरण दिये हैं-अरुणद् यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनो माध्यमिकाम् । वार्तिकके नियमानुसार साकेत[ = अयोध्या और माध्यमिका [=चित्तौड़ समीपवर्ती नगरी ग्राम पर यह लोकप्रसिद्ध अाक्रमण पतञ्जलिके जीवनकालमें हुआ था। प्रायः सभी ऐतिहासिक इस विषयमें सहमत हैं। इसी प्रकारका नियम पाणिनिसे उत्तरवर्ती प्रायः सभी व्याकरण-ग्रन्थों में उपलब्ध होता है और उसका उदाहरण देते हुए ग्रन्थकार प्राचीन उदाहरणों के साथ साथ स्वसमकालिक किन्हीं महती घटनाओंका भी प्रायः निर्देश करते हैं। यथा अजयद् जो हूणान् । चान्द्र अरुणन्महेन्द्रो मथुराम् । जैनेन्द्र० [२।२।६२ ] श्रदहदमोघवर्षोऽरातीन् । शाकटायन [४।३।२०८] अरुणत् सिद्धराजोऽवन्तिम् । हैम० [५।२।८ ] इनमें अन्तिम दो उदाहरण सर्वथा स्पष्ट हैं। प्राचार्य पाल्यकीति [शाकटायन] महाराज अमोघवर्ष और प्राचार्य हेमचन्द्र महाराज सिद्धराजके कालमै विद्यमान थे। इसमें किसीको विप्रतिपत्ति नहीं। परन्तु चान्द्रके जतं और जैनेन्द्र के महेन्द्र नामक व्यक्तिको इतिहासमै प्रत्यक्ष न पाकर पाश्चात्य मतानुयायी विद्वानोंने जर्तको गुप्त और महेन्द्रको मेनेन्द्र-मिनण्डर बनाकर अनर्गल कल्पनाएँ की हैं। इस प्रकारकी कल्पनाओस इतिहास नष्ट हो जाता है । हमारे विचारमें जैनेन्द्रका 'अरुणन्महेन्द्रो मथुराम्' पाठ सर्वथा ठीक है, उसमें किञ्चिन्मात्र भ्रान्तिको सम्भावना नहीं है। प्राचार्य पूज्यपादके कालकी यह ऐतिहासिक घटना इतिहासमै सुरक्षित है। १. देखो, स्टू क्चर आफ दी अष्टाध्यायी, भूमिका, पृष्ठ १३ । २. यद्यपि ये उदाहरण क्रमशः धर्मदास तथा अभयनन्दीकी वृत्तिसे दिये हैं, परन्तु इन वृत्तिकारोंने ये उदाहरण चन्द्र और पूज्यपादकी स्वोपज्ञ वृत्तिसे लिये हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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