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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र शब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ [श्री युधिष्ठिर मीमांसक, प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान, दिल्ली ] संसारमें वाङ्मयके प्रादुर्भावका आदिस्थान पुण्यभूमि भारत है । उसका विशाल संस्कृत वाङ्मय मुख्यतः तीन धाराओंमें विभक्त है। इस वाङ्मयकी समृद्धि में वैदिक, जैन और बौद्ध विद्वानों तथा प्राचार्योंने मुक्तहस्तसे सहयोग प्रदान किया है। भगवान् महावीरसे पूर्वके जैन तीर्थङ्करोंने उपदेश और ग्रन्थ-रचनामें किस भाषाका आश्रय लिया था, इसके प्रमाण अभी नहीं मिले । उनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध अथवा ज्ञात नहीं। इसलिए उपलब्ध संस्कृत वाङ्मयमैं वैदिक वाङमय ही प्राचीनतम कहा जा सकता है। भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध तथा उनके अनुयायी मनीषियोंने अपने विचारों को सर्वसाधारण तक पहुँचानेके लिए उपदेश और ग्रन्थ-रचनामें तात्कालिक जनभाषा प्राकृत तथा पालीका आश्रय लिया। कालान्तरमैं, सम्भवतः विक्रमकी प्रमथ शतीके लगभग जैन तथा बौद्ध आचार्योंने भारतीय जनताके हृदय में संस्कृतके प्रति युग-युगसे वर्तमान विशिष्ट अनुराग और श्रादरकी भावनाको अनुभव किया और उदारचेता होकर उन्होंने भी विद्वज्जनोपयोगी विशिष्ट ग्रन्योंकी रचनाके लिए संस्कृत भाषाको अपनाना प्रारम्भ किया। नये युगके प्रवर्तक इस नये युगके प्रवर्तक जैन सम्प्रदायमें प्राचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन दिवाकर तथा बौद्ध सम्प्रदायमें भदन्त अश्वघोष थे। ये सब वैदिक सम्प्रदायके विशिष्ट ज्ञाता थे। इसलिए उभय सम्प्रदायके शास्त्रज्ञानकी जो प्रौढ़ता इनके ग्रन्थों में उपलब्ध होती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इन आचार्योंने अपनी अगाध-विद्वत्ताके कारण अपने-अपने सम्प्रदायों में नये युगका सूत्रपात किया। इनका अनुकरण करके उत्तरवर्ती अनेक सुहृद् आचार्योंने अपने-अपने उत्तमोत्तम ग्रन्थों-द्वारा संस्कृत वाङ्मयको आगे बढ़ाया। संघर्ष युग-दोनों सम्प्रदायोंमें संस्कृत भाशके प्रति अनुराग उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। प्रत्येक विषय पर संस्कृतमें ग्रन्थ-रचनाएँ होने लगी। विक्रमकी प्रथम शतीसे १२ वीं शती तकका युग संस्कृत वाङ्मयके इतिहास में अपना स्वतन्त्र स्थान रखता है। इस काल में बैदिक, जैन और बौद्ध विद्वानों के पारस्परिक तार्किक वाद-प्रतिवादने वाङ्मयके प्रत्येक क्षेत्रको, विशेषकर न्यायशास्त्रको परिहित करनेमें विशेष योग प्रदान किया । इस कालमें वैदिक न्यायशास्त्रकी तो प्रवृत्ति ही बदल गई। वह अपने मूल प्रयोजनसे हटकर अर्थात् प्रमेय निर्णायक न रहकर केवल प्रमाण-लक्षण-निर्णय तक ही सीमित हो गया और अन्तमें उसने नव्य न्यायके रूपमें केवल बौद्धिक श्रमका रूप धारण कर लिया। जैन व्याकरण-वाङ्मय संस्कृत वाङ्मयमें व्याकरणशास्त्र अपना प्रमुख स्थान रखता है। प्राचीन शास्त्रों में इसे स्वतन्त्र विद्यास्थान माना है। इसलिए जब जैन विद्वानोंने संस्कृत भाषाको अपनाया, तब जैन सम्प्रदायमें भी इस शास्त्रका महत्त्व बढा । अनेक जैन आचार्योंने व्याकरणके क्षेत्रमें भी अनेक उत्तम कृतियाँ प्रदान की। उनसे अधिकांश विकराल काल द्वारा कवलित हो गई, अनेक ग्रन्थोंका नाम भी स्मृति-पटलसे नष्ट हो गया। कइयोंका नाममात्र शेष रहा। बहुत स्वल्प कृतियाँ शेष बचीं। जो कृतियाँ कथञ्चित् कालकवलित होनेसे इस समय तक बच भी गई वे ग्रन्थागारों में वेष्टनों में बँधी, प्रकाशमें आनेकी तिथिकी प्रतीक्षा कर रही हैं। सम्भव है उनमैसे अधिकांश कृतियाँ 'शीर्यते वन एव वा नियमके अनुसार विद्वजगत्को सुरभित न करक बनोपम ग्रन्थागारोंमें ही For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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