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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण है-१ श्री गुणनन्दि, २ विबुध गुणनन्दि, ३ अभयनन्दि और ४ वीरनन्दि । यदि पहले गुणनन्दि और वीरनन्दिके बीचमै हम ७८ वर्षका अन्तर मान लें, तो पहले गुणनन्दिका समय वही शक संवत् ८२२ या वि० सं० ९५७ के लगभग आ जायगा। इससे यह निश्चय होता है कि वीरनन्दिकी गुरुपरम्पराके प्रथम गुणनन्दि और आदि पम्पके गुरु देवेन्द्र के गुरु गुणनन्दि एक ही होंगे। गुणनन्दि नामके एक और आचार्य शक संवत् १०३७ [वि० सं० ११७२] मैं हुए हैं जो मेघचन्द्र विद्यके गुरु थे। शब्दार्णवकी इस समय दो टीकाएँ उपलब्ध हैं और दोनों ही सनातनजैनग्रन्थमालामें छप चुकी हैं१-शब्दार्णवचन्द्रिका, और २-शब्दार्णव प्रक्रिया । १-शब्दार्णव-चन्द्रिका-इसकी एक बहुत ही प्राचीन और अतिशय जीर्ण प्रति भाण्डारकर रिसर्च इन्टिट्यूटमें है। यह ताड़पत्रपर नागरी लिपिमें है। इसके आदि-अन्तके पत्र प्रायः नष्ट हो गये हैं। छपी हुई प्रतिमें जो गद्य-प्रशस्ति है, वह इसमें नहीं है और अन्त में एक श्लोक है जो पूरा नहीं पढ़ा जाता इन्द्रश्चन्द्रः शकटतनयः पाणिनिः पूज्यपादो यत्प्रोवाचापिशलिरमरः काशकृत्स्न".""शब्दपारायणस्येति । इसके कर्ता श्रीसोमदेव मुनि हैं। ये शिलाहार वंशके राजा भोजदेव [द्वितीय] के समयमें हुए हैं और अर्जु रिका नामक ग्रामके त्रिभुवनतिलक नामक जैनमन्दिरमें-जो कि महामण्डलेश्वर गंडरादित्यदेवका बनवाया हुआ था। इसे शक संवत् ११२७ [वि० सं० १२७२] में बनाया है। यह ग्राम इस समय आजरें नामसे प्रसिद्ध है और कोल्हापुर राज्यमें है। वादीभवज्रांकुश श्रीविशालकीर्ति पण्डितदेवके वैयावृत्त्यसे इस ग्रन्थको रचना हुई है। इस ग्रन्थके मंगलाचरणके पहले श्लोकमें पूज्यपाद, गुणनन्दि और सोमदेव ये विशेषण वीर भगवान्को दिये है। और दूसरे श्लोक में कहा है कि यह टीका मूलसंघीय मेघचन्द्रके शिष्य नागचन्द्र ( भुजंगसुधाकर) और उनके शिष्य हरिचन्द्र यतिके लिए बनाई गई । गुणनन्दिकी प्रशंसा चुरादि धातुपाठके अन्तमें भी एक पद्यमें की गई है, जिसका अन्तिम चरण यह है"शब्दब्रह्मा स जीयाद्गुणनिधिगुणनन्दिव्रतीशस्सुसौख्यः।" इसमें शब्दब्रह्मा विशेषण देकर गुणनन्दिको शब्दार्णव व्याकरण का कर्ता ही प्रकट किया गया है। ये मेघचन्द्र श्राचारसारके कर्ता वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीके गरु ही मालूम होते हैं। इन्हें श्रवणबेलगोलके नं० ४७ के शिलालेखमें सिद्धान्तज्ञतामें जिनसेन और वीरसेनके सदृश, न्यायमें अकलंकके समान और व्याकरण में साक्षात् पूज्यपादसदृश बतलाया है। श्रवणयेल्गोलके नं० ५० और ५२ नम्बरके शिलालेखोंसे मालूम होता है कि इनका स्वर्गवास शक संवत् १०३७ [वि० सं० ११७२] मैं और उनके शुभचन्द्रदेव नामक शिष्यका स्वर्गवास शक संवत् १०६८ [वि० सं० १२०३ में हुआ था। इसके सिवाय उनके दूसरे शिष्य प्रभाचंद्रदेवने शक सं० १०४१ [ वि० सं० ११७६ ] में एक महापूजाप्रतिष्ठा कराई थी। जब सोमदेवने शब्दार्णवचन्द्रिका मेषचन्द्र के प्रशिष्य हरिचन्द्र के लिए शक सं० ११२७/वि० सं० १२६२7 में बनाई थी, तब मेषचन्द्रका समय वि० सं० ११७२ के लगभग माना जा सकता है। 1. नं० २५ सन् १८८०-८८ की रिपोर्ट । २. श्रीपूज्यपादममलं गुणनन्दिदेवं सोमामरव्रतिपपूजितपादयुग्मम् । सिद्धं समुन्नतपदं वृषभं जिनेन्द्र सच्छब्दलक्षणमहं विनमामि वीरम् ॥१॥ ३. श्रीमूलसंघजलजप्रतिबोधभानोमधेन्दुदीक्षितभुजङ्गसुधाकरस्य । राद्धान्ततोयनिधिवृद्धिकरस्य वृत्तिं रेभे हरीदुयतये वरदीक्षिताय ॥२॥ For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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