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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण सर्वार्थसिद्धि अ० ७ सूत्र १६ की व्याख्या में लिखा है, “शास्त्रेऽपि श्रश्ववृषयो मैथुनेच्छायामिस्येवमादिषु तदेव गृह्यते ।" यह पाणिनिके ७-१-५१ सूत्रपर कात्यायनका पहला वार्तिक है । वहाँ " अश्ववृषयो मैथुनेच्छायाम्” इतने शब्द हैं और इन्हींको सर्वार्थसिद्धिकारने लिया है । यहाँ कात्यायन के वार्तिकको उन्होंने 'शास्त्र' शब्दसे व्यक्त किया है । सर्वार्थसिद्धि श्र० ५ सूत्र ४ की व्याख्या में 'नित्य' शब्दको सिद्ध करनेके लिए पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं, “नेः ध्रुवे त्यः इति निष्पादितत्वात् ।" परन्तु जैनेन्द्र में 'नित्य' शब्दको सिद्ध करनेवाला कोई सूत्र ही नहीं है, इसलिए अभयनन्दिने अपनी वृत्तिमैं "ङयेस्तुट्” [ ३-२-८६ ] सूत्रकी व्याख्या में "नेधु वः इति वक्तव्यम्” यह वार्तिक बनाया है और 'नियतं सर्वकालं भवं नित्यं' इस तरह स्पष्ट किया है। जैनेन्द्र में 'त्य' प्रत्यय ही नहीं है, इसके बदले 'य' प्रत्यय है । अतः सर्वार्थसिद्धिकारने पूर्वोक्त बात स्वनिर्मित व्याकरणको लक्ष्य में रखकर नहीं कही है। अन्य व्याकरणोंके प्रमाण भी वे देते थे और यह प्रमाण भी उसी तरहका है । २३ कुछ स्थानों में उन्होंने अपने निजके सूत्र भी दिये हैं। जैसे पाँचवें अध्यायके व्याख्यानमें लिखा है “विशेषणं विशेष्येण' इति वृत्तिः ।" यह जैनेन्द्रका १-३-५२ वाँ सूत्र है । यह सूत्र शब्दाव- चन्द्रिका [-३-४८] वाले पाठमैं भी है । इन सब प्रमाणों से यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि जैनेन्द्रका असली सूत्र- पाठ वही है जिसपर अभयनन्दिकृत वृत्ति है । शब्दार्णव- चन्द्रिकावाला पाठ असली सूत्र-पाठको संशोधित और परिवर्धित करके बनाया गया है और उसका यह संस्करण संभवतः गुणनन्दि आचार्यकृत है । अब प्रश्न यह है कि जब गुणनन्दिने मूल ग्रंथ में इतना परिवर्तन और संशोधन किया, तब उस परिवर्तित ग्रन्थका नाम जैनेन्द्र ही क्यों रक्खा १ इसके उत्तरमें निवेदन है कि एक तो शब्दाव-चन्द्रिका और जैनेन्द्र- प्रक्रिया के पूर्वोल्लिखित श्लोकोंसे गुणनन्दिके व्याकरणका नाम 'जैनेन्द्र' नहीं किन्तु 'शब्दार्णव' मालूम होता है । सम्भव है कि अर्ध-दग्ध लेखकोंकी कृपासे इन टीका- ग्रंथों में 'जैनेन्द्र' नाम शामिल हो गया हो । दूसरे यदि 'जैनेन्द्र' नाम हो भी, तो ऐसा कुछ अनुचित नहीं है। क्योंकि गुणनन्दिका प्रयत्न कोई स्वतंत्र ग्रंथ बनानेकी इच्छासे नहीं किन्तु 'जैनेन्द्र' को सर्वांगपूर्ण बनानेकी सदिच्छासे है और इसीलिए उन्होंने जैनेन्द्रके आधेसे अधिक सूत्र ज्योंके त्यों रहने दिये हैं, तथा मंगलाचरण आदि भी उसका ज्योंका त्यों रक्खा है । जैनेन्द्रकी टीकाएँ पूज्यपादस्वामीकृत असली जैनेन्द्रकी इस समय तक केवल चार ही टीकाएँ उपलब्ध हैं - १ अभयनन्दिकृत 'महावृत्ति' २ प्रभाचन्द्रकृत 'शब्दाम्भोजभास्करन्यास', ३ श्रुतकीर्तिकृत 'पंचवस्तुप्रक्रिया' और ४ पं० महाचन्द्रकृत 'लघु जैनेन्द्र' | परन्तु इसके सिवाय इसकी और भी कई टीकाएँ होनी चाहिए । पंचबस्तु के अन्तके श्लोक में जैनेन्द्रशब्दागम या जैनेन्द्र व्याकरणको महलकी उपमा दी है। वह मूलसूत्र रूप स्तम्भों पर खड़ा किया गया है, न्यासरूप उसकी भारी रत्नमय भूमि है, वृत्तिरूप उसके किवाड़ हैं, भाष्यरूप शय्यातल है, टीकारूप उसके माल या मंजिल हैं और यह पंचवस्तु टीका उसकी सोपानश्रेणी है। इसके द्वारा उक्त महलपर प्रारोहण किया जा सकता है। इससे मालूम होता है कि पंचवस्तु के कर्ता के समय में इस व्याकरणपर १ न्यास, २ वृत्ति, ३ भाग्य और ४ कई टीकाएँ, इतने टीका- ग्रन्थ मौजूद थे । १. तत्त्वार्थराजवार्तिक में भी है “शास्त्रेऽपि अश्ववृषयो मैथुनेच्छायामित्येवमादौ तदेव कर्माख्यायते । " २. सूत्रस्तम्भसमुद्धतं प्रविलसन्न्यासोरुरत्न क्षितिश्रीमद्वृत्तिकपाटसंपुटयुतं भाष्योऽथ शय्यातलम् । टीकामा लमिहारुरुक्षुरचितं जैनेन्द्रशब्दागमं प्रासादं पृथु पंचवस्तुकमिदं सोपानमारोहतात् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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