SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण १६ डॉ० कीलहार्नके इस भ्रमको सबसे पहले स्व० डॉ० के० बी० पाठकने दूर किया और अब तो जैनेन्द्र व्याकरण काफी प्रसिद्ध हो गया है । देवनन्दि और पूज्यपाद श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ४० (६४) में लिखा है कि उनका पहला नाम देवनन्दि था, बुद्धि की महत्ता के कारण वे जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और देवोंने उनके चरणोंकी पूजा की, इस कारण उनका नाम पूज्यपाद हुआ। मंगराज कविके शकसंवत् १३६५ के शिलालेख से भी यही दो नाम प्रकट होते हैं । जिनेन्द्रबुद्धि नामके एक और वैयाकरण हो गये हैं जिनका बनाया हुआ पाणिनि व्याकरणकी काशिका - वृत्तिपर एक न्यास है । वे बोधिसत्त्वदेशीयाचार्य या बौद्ध साधु थे । देवनन्दिका संक्षिप्त नाम 'देव' भी था । जिनसेन और वादिराजसूरिने इन्हें इसी संक्षिप्त नाम से स्मरण किया है। अनेक लेखकोंने उन्हें केवल देवनन्दि नामसे और केवल पूज्यपाद नामसे स्मरण किया है और दोनों नामसे उन्हें वैयाकरण माना है। महाकवि धनंजयकी नाममालामें एक श्लोक है जिसमें पूज्यपादको लक्षण ग्रन्थ (व्याकरण) का कर्ता माना हैं । जैनेन्द्रकी प्रत्येक हस्तलिखित प्रतिके प्रारंभ में जो श्लोक मिलता है, उसमें ग्रन्थकर्त्ता ने 'देवनन्दितपूजे ' पदमें जो कि भगवान्का विशेषण है अपना नाम भी प्रकट कर दिया है । संस्कृत प्राकृत ग्रन्थोंके मंगलाचरणों में १. यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्धबा महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः ॥ २ ॥ श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ॥ ३ ॥ जैनेन्द्रं निजशब्द भागमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा सिद्धान्ते निपुणत्वमुकवितां जैनाभिषेकः स्वकः । छन्दः सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदामाख्यातीस पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गणैः ॥ ४॥ २. श्रीपूज्यपादोद्धृतधर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वरपूज्यपादः । दुगुणा निदान वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धृतानि ॥ १५ ॥ धृतविश्वबुद्धिरयमत्र योगिभिः कृतकृत्यभावमनुबिभ्रदुश्ञ्चकैः । जिनवबभूव यदनङ्गचापहृत्स जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुवर्णितः ॥ १६ ॥ श्री पूज्यपादमुनिरप्रतिमोषधद्विजयाद्विदेह जिनदर्शन पूतगात्रः । यत्पादधौत जलसंस्पर्शप्रभावात् कालायसं किल तदा कनकीचकार ॥ १७ ॥ ३. कवीनां तीर्थकृद्देवः किं तरां तत्र वर्यते । विदुषां वाङ मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोमयम् ॥ ५२ ॥ - श्रादिपुराण प्र० पर्व ४. अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवंद्यो हितैषिणा । शब्दाश्च येन सिद्ध्यन्ति साधुत्वं प्रतिलंभिताः ॥ १८ ॥ - पार्श्वनाथचरित प्र० सर्ग ५. प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनंजयकवेः काव्यं रखत्रयमपश्चिमम् ॥ २० ॥ ६. लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य निरवद्याऽवभासते । देवनन्दितपूजेशं नमस्तस्मै स्वयं भुवे ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy