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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण लेखक :- श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी जैनेन्द्र और ऐन्द्र मुग्धबोधकर्ता बोपदेवने जिन आठ वैयाकरणोंके नामोंका उल्लेख किया है, उनमें एक 'जैनेन्द्र' भी है । ये जैनेन्द्र अथवा जैनेन्द्र व्याकरणके कर्त्ता कौन थे इस विषय में इतिहासज्ञों में कुछ समय तक बड़ा विवाद चला था। डॉ० कीलहार्नने इसे जिनदेव अथवा भगवान् महावीरद्वारा इन्द्रके लिए कहा गया बतलाया और इसके सुबूतमें उन्होंने कल्पसूत्रको समयसुन्दरकृत टीका, और लक्ष्मीवल्लभकृत उपदेशमाला-कर्णिकाका यह उल्लेख पेश किया था कि जिनदेव महावीर जिस समय आठ वर्षके थे उस समय इन्द्रने शब्दलक्षण संबंधी कुछ प्रश्न किये और उनके उत्तररूप यह व्याकरण बतलाया गया, इसलिए इसका नाम जैनेन्द्र पड़ा । श्वेताम्बरसम्प्रदाय और भी कई ग्रन्थोंमें इस प्रकारके उल्लेख मिलते हैं। कल्पसूत्र की विनयविजयकृत सुबोधिक टीका में लिखा है कि भगवान्को माता-पिताने पाठशाला में गुरुके पास पढ़नेके लिए भेजा है, यह जानकर इन्द्र स्वर्गसे आया और पण्डितके घर, जहाँ भगवान् थे वहाँ, गया । उसने भगवान्से पण्डितके मनमें जो जो सन्देह थे, उन सबको पूछा । जब सब लोग यह सुननेके लिए उत्कर्ण हो रहे थे कि देखें यह बालक क्या उत्तर देता है, तब भगवान् वीरने सब प्रश्नों के उत्तर दिये, और तब 'जैनेन्द्र व्याकरण' बना । परन्तु इस प्रसंगके वे सत्र उल्लेख अपेक्षाकृत अर्वाचीन ही हैं जिनमें भगवान् के उत्तररूप इस व्याकरणका नाम 'जैनेन्द्र' बतलाया है । प्राचीन उल्लेखों में इसका नाम जैनेन्द्रकी जगह 'ऐन्द्र' प्रकट किया है; जैसा कि आवश्यक सूत्र की हारिभद्रीयवृत्तिके पृष्ठ १८२ में लिखा है । इसी प्रकार सुप्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश में लिखा है कि भगवान् १. इन्द्रश्वन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेन्द्राः जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ॥ धातुपाठ २. इंडियन एन्टिक्वेरी १०, पृ० २५१ । ३. यदिन्द्राय जिनेन्द्रेण कौमारेऽपि निरूपितम् । ऐन्द्र जैनेन्द्रमिति तत्प्राहुः शब्दानुशासनम् ॥ ४. [ शक्रः ] यत्र भगवान् तिष्ठति तत्र पण्डितगेहे समाजगाम । श्रागत्य च पण्डितयोभ्ये श्रासने भगवन्तमुपवेश्य पण्डितमनोगतान् सन्देहान् पप्रच्छ, श्रीवीरोऽपि बालोऽयं किं वच्यतीत्युत्कर्णेषु सकललोकेषु सर्वाणि उत्तराणि ददौ ततो 'जैनेन्द्रव्याकरणं' जज्ञे । यतः सक्को य तस्समक्खं भगवंतं आसणे निवेसित्ता । सदस्य लक्खणं पुच्छे वागरण अवयवा इंदं ॥ ५. शक्रः तत्समक्षं लेखाचार्यसमक्षं भगवन्तं तीर्थकरं श्रासने निवेश्य शब्दस्य लक्षणं पृच्छति । भगवता च व्याकरणं अभ्यधायि । व्याक्रियन्ते लौकिक-सामायिकाः शब्दाः अनेन इति व्याकरणं शब्दशास्त्रम् । तदवयवाः केचन उपाध्यायेन गृहीताः, ततश्च ऐन्द्रं व्याकरणं संजातम् । ६. मातापितृभ्यामन्येद्यः प्रारब्धेऽध्यापनोत्सवे । श्राः सर्वज्ञस्य शिष्यत्वमितीन्द्रस्तमुपास्थितः ॥ ५६ ॥ उपाध्यायासने तस्मिन्वासवेनोपवेशितः । प्रणम्य प्रार्थितः स्वामी शब्दपारायणं जगौ ॥ ५७ ॥ इदं भगवतेन्द्राय प्रोक्तं शब्दानुशासनम् । उपाध्यायेन तच्छ्रुत्वा लोकेष्वैन्द्रमितीरितम् ॥ ५८ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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