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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनेन्द्र-व्याकरणम् थे जिसका एक शिलालेख ६२५ ई० का पाया जाता है। अतएव माघका समय सप्तम शतीका उत्तरार्ध होना चाहिए। उसके बाद ही अभयनन्दीने महावृत्तिका निर्माण किया होगा। सूत्र ११४/६९ पर 'चन्द्रगुप्तसभा' उदाहरण तो पाणिनीय परम्परामें प्राप्त होता है किन्तु उसके साथ काशिकामें जो 'पुष्यमित्रसभा' दसरा उदाहरण है उसकी जगह महावृत्ति कारने 'सातवाहनसभा' उदाहरण रक्खा है। उसी प्रकार काशिकामें [१४२३] मैं केवल 'काष्ठसभा' उदाहरण है, किन्तु अभयनन्दीने 'पाषाणसभा और पक्वेष्टकासभा' ये दो अतिरिक्त उदाहरण दिये हैं। कहीं-कहीं अभयनन्दीने काशिकाकी अपेक्षा भाष्यके उदाहरणोंको स्वीकार किया है। जैसे सूत्र ११४।१३७ में 'औद्दालकिः पिता, औद्दालकायनः पुत्रः' यह भाष्यका उदाहरण था जिसे बदलकर काशिकाने अपने समयके अनुकूल 'आर्जुनिः पिता, प्रार्जुनायनः पुत्रः' [काशिका २१४६६] यह उदाहरण कर दिया था। 'आर्जुनायन' काशिकाकारके समयके अधिक सन्निकट था जैसा कि समुद्रगुप्त की प्रयागस्तम्भ प्रशस्तिमें प्रार्जुनायनगण के उल्लेखसे ज्ञात होता है। कहीं-कहीं महावृत्तिमें काशिकाकी सामग्रीको वीकार करते हुए उससे अतिरिक्त भी उदाहरण दिये गये हैं जो सूचित करते हैं कि अभयनन्दीकी पहँच अन्य प्राचीन वृत्तियों तक थी, जैसे सूत्र ११४९८३ की वृत्तिमें 'उद्धधरावति' तो काशिकामें भी है किन्तु 'विपाटचक्रभिदम् विपाशा और चक्रभिद् नर्दीका संगम] उदाहरण नया है। ऐसे ही सूत्र २।४/२९ में मयूरिकाबन्ध, क्रौञ्चबन्ध, चक्रवन्ध, कूटबन्ध उदाहरण महावृत्ति और काशिकामें समान हैं, पर चण्डालिकाबन्ध और महिषिकबन्ध उदाहरण महावृत्तिमें नये हैं। काशिकाका मुष्टिबन्ध महावृत्तिमें दृष्टिबन्ध और चोरकबन्ध चारकबन्ध हो गया है। सूत्र १।३।३६ में भी चारकबन्ध पाठ है। सूत्र ५।४।९६ 'पानं देशे' की वृत्तिमें काशिकाके 'क्षीरपाणा: उशीनराः' को 'क्षीरपाणाः आन्ध्राः' और 'सीवीरपाणा वालीकाः' को 'सौवीरपाणाः द्रविणा:' कर दिया है। 'द्रविणाः' द्रमिल या द्रमिडका रूप है। ये परिवर्तन अभयनन्दीने किसी प्राचीन वृत्तिके आधार पर या स्वयं अपनी सूचनाके आधारपर किये होंगे। आन्ध्र देशमैं दूध पीनेका और तामिल देशमै काँजी पीने का व्यवहार लोकमें प्रसिद्ध रहा होगा | कहीं-कहीं महावृत्तिमै कठिन शब्दोंके नये अर्थ संग्रह करनेका प्रयास किया है इसका अच्छा उदाहरण सूत्र २।४११६ का 'अषडक्षीण' शब्द है। पाणिनि सूत्र ५।४।७ की काशिका वृत्तिमें 'अपडीणो मन्त्रः' उदाहरण है अर्थात् ऐसा मंत्र या परामर्श जो केवल राजा और मंत्री के बीच हुआ हो [यो द्वाभ्यामेव क्रियते न बहुभिः] । 'पटक! भिद्यते मन्त्रः' के अनुसार राजा और मुख्य मंत्रीकी 'चार आँखों' या 'चार कानों' से बाहर जो मन्त्र चला जाता था उसके फूट जानेकी अाशंका रहती थी। अभयनन्दीने काशिकाके इस अर्थको स्वीकार तो किया है, किन्तु गौण रीतिसे । उन्होंने 'अषडक्षीणो देवदत्तः' उदाहरणको प्रधानता दी है। अर्थात् कोई देवदत्त नामका व्यक्ति जिसने अपने पिता, पितामह और पुत्र में से किसीको न देखा हो। अर्थात् जो स्वयं अपने पिता पितामहकी मृत्युके बाद उत्पन्न हुआ हो और स्वयं अपने पुत्र नन्मके कुछ मास पहले गत हो गया हो। इसके अतिरिक्त गेंदको भी अपडक्षीणा कहा है [येन वा कन्दुकेन द्वौ क्रीडतः सोऽप्येवमुक्तः । या तो ये अर्थ अभयनन्दीके समयमै लोकप्रचलित थे या उनकी कल्पना है। महावृत्तिमें 'अषडक्षीण का एक अर्थ मछली भी किया है पर उसमें खींचतान ही जान पड़ती है। सूत्र ३।४।१३४ में 'अयानयोन' शब्दके अर्थका भी महावृत्तिमै विस्तार है। महावृत्ति सूत्र २।२।६२ में इतिहासको विशेष महत्त्वपूर्ण सामग्री सुरक्षित रह गई है। उसमें ये दो उदाहरण आये हैं 'अरुणन्महेन्द्रो मथुराम् । अरुणद यवनः साकेतम्' व्याकरणकी दृष्टिसे यह आवश्यक था कि कोई ऐसा उदाहरण लिया जाता जो लोकप्रसिद्ध घटनाका सूचक हो, जो कहनेवालेके परोक्षमें घटित हुआ हो किन्तु जिसका देख सकना उसके लिए सम्भव हो अर्थात् उसके जीवन कालकी ही कोई प्रसिद्ध घटना हो, पर जिसे सम्भव होने पर भी उसने स्वयं देखा न हो। भाष्यकार पतञ्जलिने इसका उदाहरण देते हुए अपनी समसामयिक दो घटनाओका उल्लेख किया था-'अरुण For Private And Personal Use Only
SR No.010016
Book TitleJainendra Mahavrutti
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj
AuthorShambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages568
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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