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________________ (४९) सस्कृत-व्याख्या नत् स्थानम् 'उक्तमिति प्रक्रमः' । 'बिन्दोरलाक्षणिकत्वात्' शाश्वतवास नित्यावस्थित ध्रुवमिति यावत् । लोकाग्रे दुरारुहम् 'उपलक्षणत्वाज्जरादय भाववच्च' यत् सम्प्राप्ता न शोचन्ते । कीदृशा. सन्तः ? इत्याह-भवा नारकादयस्तेषामोघ पुन पुनर्भावरूप प्रवाहस्तस्यान्तकरा पर्यन्तविधायिनो भवौघान्तकरा मुनय इति । हिन्दी-भावार्थ उस स्थान मे जीव सदा के लिये रहते है, वह स्थान लोक के अग्रभाग पर स्थित है, दुरारोह है, उस पर आरोहण करना कठिन है, उस स्थान को प्राप्त करने वाले जीव कभी शोक को प्राप्त नही होते है तथा भवपरम्परा का अन्त करने वाले मुनि उसे प्राप्त करते है। मूल पाठ * सिद्धा णं भन्ते । कि वड्ढति, हायति, अवट्ठिया ? गोयमा ! सिद्धा वड्ढति, णो हायति, अवट्ठिया । -भगवतीसूत्र शतक ५. उ०८ हिन्दी-भावार्थ भगवान गौतम बोले-भगवन् ! क्या सिद्ध बढते है ? घटते है अथवा अवस्थित रहते है, अर्थात् न बढते है और न घटते भगवान महावीर बोले-गौतम ! सिद्ध बढते है, घटते नही * सिद्धा भदन्त ! कि वर्धन्ते, हीयन्ते, अवस्थिता: ? गौतम ! सिद्धा वर्धन्ते, नो हीयन्ते, अवस्थिताः। ।
SR No.010013
Book TitleJain Agamo me Parmatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1960
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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