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________________ ( ४५ ) यो यत्र स तथा स चासौ ससारश्चेति समास, तत्र कललीभावेन य पुनर्भवेन – पुनः पुनरुत्पत्त्या गर्भवासवसतीना प्रपञ्चस्त समतिक्रान्ता ये ते तथा । ( अभयदेवसूरिकृत वृत्ति ) हिन्दी- भावार्थ श्री गौतम स्वामी ने पूछा - हे भगवन् । सिद्ध कहा पर रहते है ? भगवान बोले - हे गौतम । इस रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रत्यन्त समतल एव रमणीय भूमिभाग से ऊपर चन्द्रमा, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और ताराम्रो के भवन है । उन से सैकडो, हजारो, लाखो, करोडो, कोटाकोटियो योजन ऊपर जाकर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत नामक देवलोक है । इन से ऊपर तीन सौ १८ ग्रैवेयक विमान है । इन से उपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, सर्वार्थसिद्ध ये महाविमान है । सर्वार्द्धसिद्ध महाविमान की ऊपर की स्तूपिका के अग्रभाग से १२ योजन की दूरी पर ईषत्प्राग्भारा (सिद्धशिला) नामक पृथ्वी है, जो कि ४५ लाख योजन की लम्बी और इतनी ही चौडी है । इसकी परिधि (घेरा) एक करोड बयालीस लाख, तीस हज़ार दो सौ उनचास योजन से कुछ अधिक है । ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के सममध्यप्रदेश मे आठ योजन का क्षेत्र आठ योजन की मोटाई वाला है । इस से आगे क्रमश थोडी-थोडी हीन होती हुई अन्त मे मक्षिका के पख से भी अधिक तनुतर (सूक्ष्मतर ) तथा अगुल के असख्यातवें भाग जितनी इस की मोटाई रह जाती है । ईषत्प्राग्भारा पृथिवी को १२ नामो से व्यवहृत किया जाता है । वे नाम इस प्रकार है. 1 -
SR No.010013
Book TitleJain Agamo me Parmatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1960
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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