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________________ (१३) मूल पाठ * ओगाहणाए सिद्धा भवत्तिभागेण होइ परिहोणा । सठाणमणित्थथ, जरामरणविप्पमुक्काण ॥८॥ सस्कृत-व्याख्या 'अोगाहणाए' गाहा व्यक्ता, नवरम्, 'अणित्थथ' त्ति प्रमु प्रकारमापन्नमित्थ इत्थ तिष्ठतीति इत्थस्थ न इत्थस्थ अनित्थस्थ न केनचिल्लौकिकप्रकारेण स्थितमिति । हिन्दी-भावार्थ जिस अवगाहना (लम्बाई-चौडाई) मे सिद्धात्माए विराजमान होती है, वह मनुष्य-जीवन की अवगाहना से तीसरा भाग कम होती है। जरा (वृद्धावस्था) और मरण से रहित सिद्धजीवो का सस्थान (आकार) अनिश्चित होता है। लोक मे जो सस्थान पाए जाते है, उन मे से किसी विशेष सस्थान का वहा कोई नियम नही होता। मूल पाठ जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणता भवक्खयविप्पमुक्का । अण्णोण्णसमवगाढा पुट्टा सव्वे य लोगन्ते । ॥९॥ * अवगाहनाया सिद्धाः भवत्रिभागेन भवतु परिहीना । सस्थानमनित्थस्थ, जरा-मरण-विप्रमुक्तानाम् ॥ + यत्र चैक. सिद्धः, तत्रानता भवक्षयविमुक्ताः । अन्योन्यसमवगाढाः, स्पृष्टा. सर्वे च लोकान्ते ।।
SR No.010013
Book TitleJain Agamo me Parmatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1960
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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