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________________ । १०७) इस का भावार्थ करते हुए श्री दयानन्द सरस्वती लिखते है कि यह सब सूर्य,चन्द्र आदि लोक-लोकान्तर चराचर जितना जगत है, वह सब चित्र-विचित्र रचना के अनुमान से परमेश्वर के महत्त्व को सिद्ध कर उत्त्पत्ति, स्थिति और प्रलय रूप से तीनो काल मे घटने बढने से भी परमेश्वर के एक-एक चतुर्थाश मे ही रहता है, किन्तु इस ईश्वर के चौथे अश की भी अवधि को नही पाता और इस ईश्वर के सामर्थ्य के तीन अश अपने अविनाशी मोक्षस्वरूप मे सदैव रहते है । इस कथन से उस ईश्वर का अनन्तपन नही बिगडता किन्तु जगत् की अपेक्षा उस का महत्त्व और जगत् का न्यूनत्व जाना जाता है । त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष पादोऽस्येहा भवत्पुन । ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशने अभि ।। - यजुर्वेद, अ० ३१ मत्र ४ श्री दयानन्द सरस्वती ने इस मत्र का भावार्थ इस प्रकार किया है यह पूर्वोक्त परमेश्वर कार्यजगत् से पृथक् तीन अश से प्रकाशित हा एक अश अपने सामर्थ्य से सब जगत को बारबार उत्पन्न करता है, पीछे उस चराचर जगत् मे व्याप्त हो कर स्थित है । (पृष्ठ १०४३) यजुर्वेद के इन मत्रो मे कहा गया है कि परमात्मा के तीन अश अपने अविनाशी मोक्षस्वरूप मे सदैव रहते है । यजुर्वेद का यह वर्णन जैनदर्शनसम्मत परमात्मा की अनन्तता के साथ स्पष्ट रूप से मेल खा रहा है। यह सत्य है कि जैनदर्शन यजुर्वेद की भाति परमात्मा के चार अश नही मानता है, और नाहो वह परमात्मा का जगत्कर्तृत्व स्वीकार करता है।
SR No.010013
Book TitleJain Agamo me Parmatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1960
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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