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________________ (८८) अवस्थितिकाल और अन्तरकाल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इन का अल्पबहुत्व इस प्रकार है सब से कम अनाकारोपयोग वाले जीव है, और साकारोपयोग वाले जीव इन की अपेक्षा सख्येय गुणा अधिक है । मूल पाठ अहवा दुविहा सव्वजोवा पण्गत्ता, तजहा-आहारगा चेव अणाहारगा चेव । आहारए ण भते | जाव केवचिर होति ? गोयमा । आहारए दुविहे पण्णत्ते, तजहा--- छउमत्थआहारए य केवलिआहारए य । छउमत्थआहारए ण जाव केवचिर होति ? गोयमा | जहण्णेण खुड्डाग भवग्गहण दुसमयऊण, उक्को० असखेज्ज काल जाव काल० खेत्तओ अगुलस्स * अथवा द्विविधा सर्वजीवा प्रज्ञप्ताः। तद्यथा-आहारकाश्चैव, अनाहारकाश्चैव । आहारको भदन्त | यावत् कियच्चिर भवति ? गौतम । आहारको द्विविध प्रज्ञप्त । तद्यथा-छद्मस्थाहारकश्च, केवलि-पाहारकश्च । छद्मस्थाहारको यावत् कियच्चिर भवति ? गौतम! जघन्टेन क्षुल्लक भवग्रहण द्विसमयोनम, उत्कर्षेण असख्येयकाल यावत् काल०, क्षेत्रतोऽगुलस्य असख्येयभागम् । केवलि-माहारको यावत् कियच्चिर भवति ? गौतम | जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण देशोना पूर्नकोटि. । अनाहारको भदन्त । कियच्चिर ? गौतम ' अनाहारको द्विविध प्रज्ञप्त । तद्यथा-छद्मस्थानाहारकश्च, केवलि-अनाहारकश्च ।
SR No.010013
Book TitleJain Agamo me Parmatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1960
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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