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________________ (२७) जाता है १ दुग्धसे घृत भिन्न होता है २ सुवर्णसे रज पृथक् हो जाती है ३ इसी प्रकार जीव कोंसे अलग हो जाता है अपितु फिर कर्मोंसे स्पर्शमान नहीं होता जैसे तिलोंसे तैल पृथक् हो कर फिर वह तैल तिलरूप नही बनता एसे ही घृत सुवर्ण इत्यादि । इसी प्रकार जीव द्रव्य जव कमोंसे मुक्त हो गया फिर उसका कर्मोंसे स्पर्श नही होता, किन्तु फिर वह सादि अनंत पदवाला हो जाता है । सो यह नव तत्व पदार्थ है। तथा च जीवाजीवात्रवन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥ तत्त्वार्थ के इस सूत्रसे सप्त तत्व सिद्ध है, जैसेकि जीवतत्व १ अजीवतत्त्व २ आसवतत्व ३ वन्धतत्व ४ सम्वरतत्व ५निर्जरातत्व मोक्षतत्व ७॥ किन्तु पुण्यतत्व, पापतत्त्व, यह दोनों ही तत्व आसवतच्च के ही अन्तरभूत है, क्योंकि वास्तवमें पुण्य पाप यह दोनो ही आस्त्रवसे आते हैं अपितु पुण्य शुभ प्रकृतिरूप आस्रव हैं, पाप अशुभ प्रकृतिरूप आस्रव है । काँका बंध जीवाजीवके एकल्प होने पर ही निर्भर हैं क्योंकि जीवाजीवके एकत्व होने पर ही योगोत्पत्ति है, सो योगोंसे ही काँका बंद है और पुण्य पापसे ही आस्रव है अर्थात् पुण्य पापका जो आवागमण है, वही
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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