SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १७ ) एगत्तेयसाइया पज्जव सिया विय । पुहते पाईया पज्जवसियाविय ॥ उत्त० अ० ३६ गाथा ६७ ॥ वृत्ति - ते सिद्धा एकत्वेन एकस्य कस्यचित् नाम ग्रहणापेक्षया सादिकाः अमुको मुनिस्तदा सिद्धः इत्यादि सहिताः सिद्धाः भवंति च पुनस्ते सिद्धाः अपर्यवसिताः अन्तरहिताः मोक्षगमनादनन्तरं अत्रागमनाभावात् अन्तरहिताः ते सिद्धाः पृथक्त्वेन वहुः केन सामस्त्यापेक्षया अनादयो अनन्ताथ || भावार्थ:- एक सिद्ध अपेक्षा सादि अनंत है और बहुतों की अपेक्षा अनादि अनंत हैं, अर्थात् जिस समय कोई जीव मोक्षगत हुआ उस समयकी अपेक्षा सादि है अपुनरावृत्तिकी अपेक्षा अनंत हैं, फिर बहुत सिद्धोंकी अपेक्षा अनादि अनंत है, क्योंकि काळचक्र अनादि अनंत होनेसे तथा जैसे चेतनशक्ति अनादि है वैसे ही जड़ शक्ति भी अनादि है अपितु जड़ शक्तिकी अपेक्षा चेतन शक्ति रूप शब्द व्यवहृत है, ऐसे ही जड़ शक्ति चेतन शक्तिकी अपेक्षा सिद्ध है । इसी प्रकार संसार अपेक्षा सिद्ध पद है और सिद्धपद अपेक्षा संसारपद है, किन्तु यह दोनों अनादि अनंत है ॥
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy