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________________ (, १९०) भाव रखनेसे कोई जीव पाप कर्म न करे, नाही दुःखोंकों प्राप्त होवे, यथाशक्ति जीवोंपर परोपकार करते रहना, अन्तःकरणसे वैरभावको त्याग देना उसका ही नाम मैत्री भावना है। और जो अपनेसे गुणोंमें वृद्ध हैं धर्मात्मा हैं परोपकारी हैं सत्यवक्ता हैं ब्रह्मचारी हैं दयारूप शान्तिसागर हैं इस प्रकारके जनोंको देखकर प्रमोद करना अर्थात् इष्यों न करना अपितु हर्ष प्रगट करना और उनके गुणोंका अनुकरण करना प्रसन्न होना उनकी यथायोग्य भक्ति आदि करना उसीका नाम प्रमोद भावना है। और जो लोग रोगोंसे पीड़ित हैं दुःखित हैं दीन हैं वा । पराधीन हैं तथा सदैव काल दुःखोंको जो अनुभव कर रहे हैं ‘उन जीवों पर करुणा भाव रखना और उनको दुःखोंसे विमुक्त करनेका प्रयत्न करते रहना यथाशक्ति दुःखोंसे उनपीड़ित जीवोंकी रक्षा करना उसीका ही नाम कारुण्य भावना है अर्थात् सर्व जीवोपरि दयाभाव रखना किन्तु दुःखियोंको देखकर हर्ष न प्रगट करना सोई कारुण्य भावना है। और जो जीव अविनयी हैं सदैवकाल देव गुरु धर्मेसे प्रतिकूल कार्य करनेवाले हैं "उन जीवोंमें माध्यस्थ भाव रखना अर्थात् उनको यथायोग्य शिक्षा तो करनी किन्तु द्वेष न करना वही.माध्यस्थ्य भावना है। सों यह चार ही भावनायें आत्मकल्याण करनेवाली हैं और
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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