SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १८३) कर सक्ते और नाही मैं उनको किसी प्रकारसे दुःखोसे विमुक्त करनेमें समर्थ हैं। प्रत्येक २ प्राणी अपने २ किये हुए काँके फलको अनुभव करते हैं इसका ही नाम एकत्व भावना है। अन्यत्व भावना॥ हे आत्मन् ! तू और शरीर अन्य २ है, यह शरीर पुद्रकका संचय है अपितु चेतन स्वरूप है । तू अमूर्तिमान सर्व ज्ञानमय द्रव्य है। यह शरीर मूर्तिमान शून्यरूप द्रव्य है और तू अक्षय अव्ययरूप है, किन्तु यह शरीर विनाशरूप धर्मवाला है फिर तू क्यों इसमें मूञ्छित हो रहा है ? क्योंकि तू और शरीर भिन्न २ द्रव्य हैं । फिर तू इन कोंके वशीभूत होता हुआ क्यों दुःखोंको सहन कर रहा है ? इस शरीरसे भिन्न होनेका उपाय कर और अपनेसे सर्व पुद्गळ द्रव्यको भिन्न मान फिर उससे विमुक्त हों क्योंकि तू अन्य हैं तेरेसे भिन्न पदार्थ अन्य हैं ।। अशुचि नावना ॥ फिर ऐसे विचारे कि यह जीव तो सदा ही पवित्र है किन्तु यह शरीर मलीनताका घर है । नव द्वार इसके सदा ही मलीन रहते हैं अपितु इतना ही नहीं किन्तु जो पवित्र पदार्थ इस गंधमय शरीरका स्पर्श भी कर लेते हैं वह भी अपनी पवित्रता खो
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy