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________________ (१५३ ) प्रसन्नता देनेवाला है और उभय लोग, यशपद है। इसके धारणा करनेवाले आत्मा स्व स्वरूप, वा पर स्वरूपके पूर्ण वेत्ता होते हैं। अपितु गृहस्थ लोगोंको पूर्ण ब्रह्मचारी होना परम कठिन है, इसी वास्ते अर्हन् देवने व्यभिचारके बंध करनेके वास्ते गृहस्थ लोगोंका स्वदार संतोष व्रत प्रतिपादन किया है अर्थात् अपनी स्त्री वजेके शेष स्त्रिय भगिनी वा मातृवत् जानना ऐसे वतलाया है। और स्त्रियों के लिये भी स्वपति संतोष व्रत है, अपितु इतना ही नहीं, अपनी स्त्री पर भी माञ्छित न होना, परस्त्रियों का कभी भी चिंतवन न करना और अपनी स्त्री पर ही संतोष कर रना । सो इस व्रतके भी पांच अतिचार हैं, जैसेकि . श्तरिय परिग्गहिय गमणे अप्परिग्गहिय गमणे अणंग कीडा पर विवाह करणे कामभोग तिवान्निलासे ॥ भाषार्थ:-स्वस्त्री* यदि लघु च्यवस्थाकी हो क्योंकि किसी * प्रथम अतिचारका अर्थ ऐसे भी लिखा हुआ है कि पर. स्त्रीको स्तोककाल पर्यन्त अपनी स्त्री बनाके रखना । द्वितीय अतिचारका अर्थ विधवा वां वेश्याको आसेवन करना । चतुर्थका अर्थ परके विवाह आदि करने। परंतु श्री पूज्य आचार्य सोहनलालजी महाराजने उपर लिखे हुए ही अर्थ बतलाये हैं। -
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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