SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१४३ ) यथावदतिथौ साधी दीने च पतिपत्तिकृत ] सदानभिनिविष्टश्च पक्षपाती गुणेषु च ॥७॥ अदेशाकालयोश्चर्या त्यजन् जानन् वळावलम् । वृत्तस्थ ज्ञानद्धानां पूज्यक: पोण्यपोषकः ॥ ८॥ दीर्घदशी विशेषज्ञः कृतज्ञो लोकवल्लभः । सलज्जः सदयः सौम्यः परोपकृतिकर्मठः ॥ ९ ॥ अंतरंगादिषड्वर्गपरिहारपरायणः । वर्श:कृतेन्द्रियग्रामो गृहिधर्माय कल्पते ।। १० ।। भावार्थ:--न्यायसे धन उपार्जन वा शिष्टाचारकी प्रशंसा करनेवाला, वा जिनका कुल शील अपने सादृश्य है ऐसे अन्य गौत्रवाळेके साथ, विवाह करनेवाला, वा पापसे डरनेवाला है, और प्रसिद्ध देशाचारको पालन करता हुआ किसी आस्माका भी कहींपर अवणवाद नहीं बोलता,अपितु राजादिकोंका विशेष करके अवर्णवाद वर्जता है और अति प्रगट वा अति . गुप्त स्थानों में भी निवास नहीं करता किन्तु अच्छे पडोसीवाले घरमें रहनेवाला, और जिस स्थानके अनेक आने जानेके .मार्ग होवे उस स्थानको वर्जता है। फिर सदाचारियोंसे संग करनेवाला, उपद्रव संयुक्त स्थानको वर्जनेवाला और जो कर्म
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy