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________________ विचार किया कि यदि मैंने किसी औरको सिखला दिया तो मेरी प्रतिष्ठा भंग हो जायगी २ ॥ और ज्ञानके पठन करनेमें अंतराय देना अर्थात् ऐसे २ उपाय विचारने जिस करके लोग विद्वान् न वन जादे और पूर्ण सामग्री होनेपर भी ज्ञानदृद्धिका कोई भी उपाय न विचारना ३ ॥ और ज्ञानमें द्वेष करना ४ ॥ ज्ञानकी आशातना करना ५ ॥ ज्ञानमें विषबाद करना तथा सत्य स्वरूपको परित्याग करके वितंडावादमें लगे रहना ६ ॥ इन काँसे जीव ज्ञानावणी कर्मको वांधते हैं जिसके प्रभावसे जाननेकी शक्तिसे भिन्न ही रह जाते हैं, और इन काँ ( कारणोंसे) के परित्याग करनेसे जीव ज्ञानावर्णको दूर कर देते हैं, जिस करके उनको पूर्ण ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है। और दर्शनावर्णी कर्म भी जीव उक्त ही कारणोंसे बांधते है जैसेकि-दर्शनप्रत्यनीकता करनेसे १ दर्शननिण्हवता २ दर्शन अंतराय ३ दर्शन प्रद्वेपता ४ दर्शन आशातना ५ दर्शन विपवाद योग ६ ।। इन कारणोंसे जीव दर्शनावणी कर्मको वांधकर चक्षुदर्शनादिका निरोध करते है २ ॥ और वेदनीय कर्म द्वि प्रकारसे वांधा जाता है जैसे कि सुख वेदनी १, दुखवेदनी २। अर्थात् जिसने किसीको भी पीड़ा नहीं दी, सर्व रक्षा करता रहा, किसीको दु:खित नहीं किया, वह जीव सुखरूप वेदनी कर्म बांधता है और उसका मुखरूप ही फल भोगता है।
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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