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________________ (१३०) राग भी चितवन न करे अर्याद स्त्रियोंको पंक (कीचड़) भूत जानके परित्याग करे ८ ॥ प्रामों नगरोंमें विहार करते समय जो कष्ट उत्पन्न होता है उसको सम्यक् मकारसे सहन करे, ऐसे न कहे विहारसे बैठना ही अच्छा है ९॥ ऐसे हो बैठनेका भी परीषह सहन करे, क्योंकि जिस स्थान मुनि बैठा हो विना कारण वहांसे न ऊठे १० ॥ और सम विषम शय्या मिलने भी शान्तिपूर्वक परिणाम रक्खे ११ ॥ यदि कोई आक्रोश देता हो वा दुर्वचनोंसे अलंकृत करता हो तो उसपर क्रोध न करे क्योंकि ज्ञानसे विचारे इसके पास यही परितोषिक है १२॥ यदि कोई वध (मारने ) ही करने लग जावे तो विचारे .यह मेरे आत्माका तो नाश कर ही नहीं सक्ता अपितु शरीर मेरा है ही नहीं, इस प्रकारसे वध परीपहको सहन करे १३ ॥ फिर याचनाका भी परीषह सहन करे अर्थात् याचना करता हुआ लज्जा न करे १४ ॥ यदि याचना करनेपर भी पदार्थ • उपलब्ध नहीं हुआ है तो विषवाद न करे १५ ।। रोगोंके आनेपर शान्तिभाव रक्खे तथा सावध औपाधि भी न करे . १६ ॥ और संस्तारकादिमें तृणोंका भी स्पर्श सहन करे किन्तु तणोंका परित्याग करके वस्त्रोंकी याचना न करे १७॥ स्वेदके ... आ जाने पर मलका परीषह सहन करे १८॥ इसी प्रकार सत्कार
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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