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________________ (११०) सज्जनों करके धिक्कारपात्र होना अनंत काँकी प्रकृतिको एकत्र करना संसारचक्रमें परिभ्रमण करना कारागृहोंमें विहार अनेक दुर्वचनोंका सहन करना शस्त्रोंके सन्मुख होना इत्यादि कष्टोंसे जीव विमुक्त होते हैं जो तृतीय महाव्रतको धारण करते हैं, क्योंकि योगशास्त्रमें लिखा है कि वरं वन्हिशिखा पीता सपोस्य चुम्बितं वरम् । वरं हालाहलं लीढं परस्य हरणं न तु ॥ १ ॥ अर्थात् अग्निकी शिखाका पान करना, सर्पके मुखका स्पर्श, पुनः विषका भक्षण सुंदर है किन्तु परद्रव्यको हरण करना सुंदर नही है क्योंकि इन क्रियाओंसे एकवार ही मृत्यु. होती है आपितु चौर्यकर्म अनंतकाल पर्यन्त जीवको दुःखी करता है, इस लिये सर्व दुःखोंसे छुटनेके लिये मुनि तृतीय महाव्रत धारण करे ।। (४) सवाज मेहुणाउ वेरमणं ॥ ___ सर्वथा मैथुनका परित्याग करे तीन करणों तीन ही योगोंसे, क्योंकि यह मैथुन कर्म तप संयम ब्रह्मचर्य इनको विघ्न करनेवाला है, चारित्ररूपी ग्रहको भेदन करनेवाला है, प्रमादोंका मूल है, वालपुरुषोंको आनंदित करनेवाला है, सज्जनों करके परित्यागनीय है और शीघ्र ही जराके देनेवाला है, क्योंकि का
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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