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________________ (१०८) (१) सवाउ मुसावायाउ वेरमणं ॥ सर्वथा प्रकारसे मृपावादसे निति करना जैसेकि आप असत्य भाषण न करे औरोंसे न करावे असत्य भाषण करता. ओंका अनुमोदन भी न करे, मन करके, वचन करके, काया करके, क्योंकि असत्य भाषण करनेसे विश्वासताका नाश हो जाता है और असत्य वचन जीवोंकी लघुता करनेवाला होता है, अधोगतिमें पहोंचा देता है, वैरै विरोधके करनेवाला है तथा कौनसे कष्ट हैं जिसका असत्यवादीको सामना नहीं करना पड़ता। इस लिये सत्य ही सेवन योग्य है । सत्यके ही महात्म्यसे सर्व विद्या सिद्ध हो जाती हैं ।। तप नियम संयम व्रतोंका सत्य मूल हैं परमश्रेष्ठ पुरुषोंका धर्म है, सुगति के पथका दर्शक है, लोगमें उत्तम व्रत है। सत्यवादीको कोई भी पराभव नहीं कर सक्ता, यथार्थ अर्थोंका ही सत्यवादी प्रतिपादक होता है और सत्य आत्मामें प्रकाश करता है, परिणामोंके विषवादको हरण करनेवाला है और अनेक विकट कष्टोंसे जीवकों विमुक्त करके मुखके मार्गमें स्थापन करता है तथा देव सदृश शक्तिये दिखानेमें भी सत्यवादी समर्थ हो जाता है । और लोगों सारभूत है । सर्व विद्या सत्यमें निवास करती
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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