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________________ (९८) जाता है क्योंकि इन्द्रिय निर्बल होनेपर इन्द्रियनन्य ज्ञान भी प्रायः परिवर्तन हो जाता है, अपितु ऐसे न ज्ञात कर लिजीये .इन्द्रिये शून्य होनेपर ज्ञान भी शून्य हो जायगा । आत्मा ज्ञान एक ही है किन्तु कोंसे शरीरकी दशा परिवर्तन होती है, साथ ही ज्ञानावर्णी आदि कर्म भी परिवर्तन होते रहते हैं परंतु यह वातों मतिज्ञानादि अपेक्षा ही है न तु केवलज्ञान अपेक्षा । सो इसकी परिणामिका बुद्धि कहते हैं ४ । सो यह सर्व बुद्धिये मतिज्ञानके निर्मल होनेपर ही प्रगट होती हैं, किन्तु सम्यग् दृष्टि जीवोंकी सम्यग् बुद्धि होती है मिथ्यादृष्टि जीवोंकी बुद्धि भी मिथ्यारूप ही होती है अर्थात् सम्यग् दीको मतिज्ञान होता है मिथ्यादीको मलिअज्ञान होता है, इसका नाम मतिज्ञान है।। __और श्रुतज्ञानके चतुर्दश भेद हैं जैसेकि-अक्षरश्रुत १,अनक्षरश्रुत २, संज्ञिश्रुत ३, असंज्ञिश्रुत ४, सम्यग्श्रुत ६, मिथ्यात्व श्रुत ६, सादिश्रुत ७, अनादिश्रुत ८, सान्तश्रुत (सपर्यवसानश्नुत) ९., अनंतश्रुन १०, गमिकश्रुत ११, अगमिकश्रुत १२, अंगमविष्टश्रुत १३, अनंगप्रविष्टश्रुत १४ ॥ भाषार्थ:--अक्षरश्रुत उसका नाम है जो अक्षरोंके द्वारा सुनकर ज्ञान प्राप्त हो, उसका नाम अक्षरश्रुत है । (२) अनक्षर
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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