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________________ -१८७ ] येडेहलिके लेख ३३१ १० कलु केरेपुरिटिं व (ढ) गलु || पडुबलु गुरुवप्न हेवरुवन तो१८ टटि मूडलु । वढगलु हानम्बियिंड तकलु । यिंती चतुस्त्रि१९ मेवलगुल्ल | निधि । निक्षेपनल । पामण अक्षोणि । भागमि । मिदमा २० ध्यगलेंब । श्रष्टाभोग तेजसाम्यवन्नु नीट निम्म शिप्यरु पा२५ रम्पर्यवागि सुनहिं बोगिसि बहिरियन्टं वरसि कोट क्रय शा२२ मन पढे यिनक्के अविलासे विटवर देवलोक मत्यलोक्के बिर२३ हित । श्रीहत्य | गोहत्यक्क वजिनरहरू | त्रिरपव२४ र श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री [ यह लेख माध्विन शु० १०, रविवार, शक १५०६, तारण भवत्सरके दिन लिखा है । इममं दानिवानके शासक चेन्नरायके पौत्र तथा चिक्कatroपके पुत्र चेन्नवीरप्प वडेर द्वारा गरसोप्पेके वीरसेनदेवको कुछ भूमि दो जानेका उल्लेख है । वीरमेनके गुरु गुणभद्र तथा प्रगुरु समंतभद्र थे । उन्होंने ३२ वराह मूल्य देकर यह भूमि खरीदी थी जो पहले भालेपाल वन्दष्पके पुन लिंगण्णकी थी और उसके सन्तानरहित स्थितिमं मृत्यु होनेसे राजाधीन हुई थी । यह भूमि नागलापुर गांवके क्षेत्रमें थी। ] [ ए० रि० मैं ० १९३१ पृ० १०४ ] ४८७ येडेहलि (मैसूर) शक १५०७ = सन् १५०१, कन्नड १ सुममस्तु । नमस्तुगशिरश्चु विचंद्रचामरचा २ रखे त्रैलोक्यनगरारं ममूलस्त माय शमवे (1) स्व ३ स्ति श्रीजयाभ्युदय शालिवाहनशकवरूप १५०७ ● मंद वर्तमान पार्थिवसवत्सरट चयित्र व ७ मि आदि
SR No.010009
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages464
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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