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________________ २४४ जैनशिलालेस-सप्रह [३१९६ ल सेणसि राजनेनिपवनावं ॥ स्थिरवेयनुत्तंगतेयं धरियिसिदा सेननृपधरोदयढोल मासुरतेजोनिधि पनामिराम. नेने कातवीयरवियुटयिसिदं । विनारपुप्रतिविवालि निवांत कार्तवीर्यपदनखदोल चेल्वेनिकु पूर्वपदाधि८ वरनलिदु तन्मंत्रकृतिगे पदेदप्पुवघोल ॥ स्थितिकारिणि विमल गुणान्विते पनलदेवि कार्तवीर्यधरित्रीपतिदयिते व त्रिवहै गोशतिसाधिकेयपरनीतिवियेवोलेसेवळ ॥ जनियिसिद समस्त गुणसकुलसस्तुतलक्ष्मभूमिपं जननुतकार्तवीर्य१० विभुग सतिपालदेविग सुतं जनियिपवोल् जयन्तनमरप्रभुर्ग शविगं मयूरवाहनमवंगवद्रिजेगमगमव हरिगं ११ रमाश्यग ॥ पनिवेयर मरुलचुव समाकृतियि सुमनोभिवृद्धिय जनियिप शीलदि कुवलय विकासमनीव भयमेयि जन१२ नयनके कामनो वसन्तनो चढ़मनो दिटके पेलेने विभु लक्ष्मी देवनेसेव कविसंकुलकरुपमूह ॥ विजितरिपुराजराजाम१३ जे चढलदेवि लक्ष्मनृपसतियसवल विजितघटसर्पमदे विश्वजन स्तुतचारुचरितेयेने धारिणियोल ॥ अवरिवंग कलिकार्तवी१४ यनु मल्लिकार्जुननुमाटर प्रोदुमवसाम्राज्यरामाधिपयुवराज कुमाररारमजर धनतेजर ॥ जनमल्ल पेच्चे क १५ पेगेवरट सेल्लं जयश्रीगे नल्ल मनुमा सत्रिवर्ग नगेसेये निसर्ग गृहीतारिदुर्ग सनयाला १६ सुरूप नेगलदनविदिलीपं जितारातिभूपं धनशौर्य क्षत्रवर्य सुरकुजसशौदार्यनी कार्तवीर्य । १७ श्रीमकुलाधिवधनसोमनेनिप्पुटयविभुविनात्मजनत्युडामयशो निधि बीच भूमाहितं सौम्यवृत्तिय तळेदेसेव । बीच१८ गे सुकविसस्तुतवाचंगादर सुतर जिनेद्रमतश्रीलोचनसनिमरात्म हिताचरणर् नेगल्द पेमणनुमप्पणतुं ॥ तनग
SR No.010009
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages464
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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