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________________ प्रस्तावना सन् १०७१ का है (क्र० १५४)। इसमें मूलसंघ-नन्दिसंघका वलगार गण ऐसा इसका नाम है तथा इसके ८ आचार्योंको परम्परा दी है जो इस प्रकार है - वर्धमान महावादी विद्यानन्द-उनके गुरुवन्धु ताकिकार्क माणिक्यनन्दि-गुणकोति-विमलचन्द्र-गुणचन्द्र-गण्डविमुक्त-उनके गुरुबन्धु अभयनन्दि। अगले लेख (३० १५५ ) में इसी परम्पराके तीन और आचार्योके नाम है-अभयनन्दि-सकलचन्द्र-गण्डविमुक्त २-त्रिभुवनचन्द्र । इन लेखोमे गुणकीति तथा त्रिभुवनचन्द्रको मिले हुए दानोका विवरण है । लेख १५७ में सन् १०७४ मै पुन. त्रिभुवनचन्द्रका उल्लेख है। इस गणके अगले महत्त्वपूर्ण लेन्ज (क्र. ३४२, ३७६ ) तेरहवी सदीके हैं। इनमें शास्त्रसारसमुच्चय आदि ग्रन्योके कर्ता माघनन्दि आचार्यका वर्णन है। इनकी गुरुपरम्मरामै १९ आचार्योक नाम दिये है किन्तु उनका क्रम व्यवस्थित प्रतीत नही होता। चौदहवी सदीमे बलात्कारगणके साथ सरस्वतोगच्छका उल्लेख मिलता है। इसकी एक परम्पराके आचार्य अमरकोति थे। इनके शिष्य माधनन्दिने सन् १९५५में एक मूर्ति स्थापित की थी (क्र० ३९३) इसी परम्पराके तीन लेख और है। इनमें वर्धमान, धर्मभूपण तथा वर्षमान २ इन भट्टारकोका उल्लेख है । ये लेख सन् १३९५ तथा १४२४ के है (क्र० ४०३, १ इस लेखसे बलगार गणकी परम्पराका अस्तित्व सन् ९०० तक ज्ञान होता है। अत. डॉ. चौधरीकी यह कल्पना गळत प्रतीत होती है कि यह वलहारि गणका ही रूपान्तर है । वलहारि गणका उल्लेख पहले संग्रहमें मन् १५० के लगमग मिला है (तीसरा भाग प्रस्तावना पृ० २६, ३०)। इम परसरामें माणिक्यनन्तिका नाम उल्लेखनीय है। हमारा अनुमान है कि परीक्षामुसके कर्ता माणिक्यनन्दि इनसे अमित होंगे!
SR No.010009
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages464
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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