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________________ ७२ जैन - शिलालेख संग्रह भी दिया है, वे दोनो बाते इस पत्र नहीं है जिनके, एक ही दाता होनेकी हालत में छोड़ दिये जाने की कोई वजह मालुम नहीं होती; चीये, इस पनसे अन्तकी स्तुतिविषयक मंगलाचरण भी नहीं है, जैसाकि प्रथम पत्रमें पाया जाता है; इन सब बातोंसे ये दोनो पत्र एक ही राजाके मालूम नहीं होते । इस पत्र न. ९८ मे श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के जो विशेषण दिये है उनसे यह भी पता चलता है कि, यह राजा उभवलोककी दृष्टिसे प्रिय और हितकर ऐसे अनेक शास्त्रो के अर्थ तथा तच्वविज्ञानके विवेचनमें बढ़ा ही उदारमति था, नय-विनयमे कुशल था और ऊँचे दर्जेके बुद्धि, धैर्य, वीर्य, तथा त्याग युक्त था । इसने व्यायामकी भूमियोंमें यथावत् परिश्रम किया था और अपने भुजबल तथा पराक्रमसे किसी बडे भारी संग्राम में विपुल ऐश्वर्यकी प्राप्ति की थी, यह देव, हिज, गुरु और साधुजनों को नित्य ही गौ, भूमि, हिरण्य, दायन ( शय्या ), आच्छादन ( ख ) और अन्नादि अनेक प्रकारका दान दिया करता था। इसका महाविभव विद्वानों, सुहदों और स्वजनो के द्वारा सामान्यरूपसे उपभुक्त होता था; और यह आदिकालके राजा (संभवत: भरतचक्रवर्ती) के वृत्तानुसारी धर्मका महाराज था । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायोके जैनसाधुओको यह राजा समानदृष्टिसे देखता था, यह बात इस दानपत्रसे बहुत ही स्पष्ट है । ] हल्सी - संस्कृत | -[2] स्वस्ति ॥ जयति भगवाञ्जिनेन्द्रो गुणरुन्द्रप्रथितपरमकारुणिक. त्रैलोक्याश्वासकरी दयापताकोच्छ्रिता यस्य [1] कदम्ब कुलसत्केतोः हेतो पुण्यैकसम्पदाम् श्रीकाकुस्थनरेन्द्रस्य सूनुर्भानुरिवापर. [II]
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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