SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वागत जैनशिलालेखसंग्रहका प्रथम भाग आजसे चौबीस वर्ष पूर्व) सन् १९२८ ईस्वीमे प्रकाशित हुआ था । इसके (प्राथमिक वक्तव्यमे मैंने यह आग प्रकट की थी कि यदि पाठकोने चाहा, और भविष्य अनुकूल रहा तो अन्य शिलालेखोका 'दूसरा संग्रह शीघ्र ही पाठेकोको भेंट किया जायगा । पाठकोने चाहा तो खूब, और माणिकचन्द्र-दिगम्बर जैन मंथमालाके परम उत्साही मंत्री पं० नाथूरामजी प्रेमीकी प्रेरणा भी रही, किन्तु मैं अपनी अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियो के कारण इस कार्यको हाथमे न ले सका । तथापि चित्तमे इस कार्यकी आवश्यकता निरन्तर खटकती रही। अपने साहित्यिक सहयोगी डॉ० आदिनाथजी उपाध्येसे भी इस सम्बन्धमे अनेक बार परामर्श किया किन्तु शिलालेखोका संग्रह करने करानेकी कोई सुविधा न निकल सकी । अतएव, जब कोई दो वर्ष पूर्व श्रद्धेय प्रेमीजीने मुझसे पूछा कि क्या पं० विजयमूर्तिजी एम० ए० ( दर्शन, संस्कृत ) शास्त्राचार्यद्वारा शिलालेखग्रहका कार्य प्रारम्भ कराया जाये, तब मैंने सहर्ष अपनी सम्मति दे ढी । आनन्दकी बात है कि उक्त योजनानुसार जैन शिलालेखसंग्रहका यह द्वितीय भाग छपकर तैयार हो गया और अब पाठकोके हाथोमे पहुँच रहा है। यह बतलानेकी तो अव आवश्यकता नहीं है कि प्राचीन शिलालेखोका इतिहास - निर्माण के कार्य मे कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है । जबसे जैन शिलालेखोका प्रथम भाग प्रकाशित हुआ, तबसे गत चौबीस वर्षोंसे जैनधर्म और साहित्य के इतिहाससम्बन्धी लेखोमे एक विशेष प्रौढता और प्रामाणिकता दृष्टिगोचर होने लगी । यद्यपि वे शिलालेख उससे पूर्व ही प्रकाशित हो चुके थे, किन्तु वह सामग्री ॲग्रेजीसे, पुरातत्त्वविभागके बहुमूल्य और बहुधा अप्राप्य प्रकाशनोमें निहित होनेके कारण साधारण लेखको तथा पाठकोको सुलभ नहीं थी । इसीलिये समस्त प्रकाशित शिलालेखोका सुलभ सग्रह नितान्त मावश्यक है । 1 जैनशिलालेखसंग्रह प्रथम भागसे पाँच सौ शिलालेख प्रकाशित किये गये थे । वे सब लेख श्रवणबेल्गुल और उसके आसपास के कुछ स्थानो के ही थे'।
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy