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________________ हळेबीडका लेख (उसके पदों और उपाधियोंका वर्णन) उसने तलकाहु, कोङ्ग, नङ्गलि, गनवाडि, नोळम्ववाडि, मासवाडि, हुळिगेरे, हलसिगे, वनवसे और हानुझल्पर अधिकार कर लिया था । इतना ही नहीं, बङ्ग, कुन्तल, मध्यदेश, काञ्ची, विनीत और मधुरा (वर्तमानका मदुरा) ये सब उसीके मधीन थे। . .. तत्पादपद्मोपजीवी पुराना दण्डनायक गणराज था। (उसकी बहुत-सी उपाधियोंका उल्लेख) उसने भगणित ध्वस्त जैन मन्दिरोंका पुनर्निर्माण कराया। अपने अनवधि दानोंसे उसने गङ्गवाडि ९६००० को कोपणके समान चमकावा | गंगकी रायमें सात नरक ये थे:-झूठ बोलना, युद्धमे भय दिखाना, परदारारत रहना, शरणार्थियों को शरण न देना, अधीनस्थोंको अपरितृप्त रखना, जिनको पासमें रखना चाहिये उन्हें छोड देना, और स्वामीसे द्रोह करना । गंग-चमूपति और नागल-देवीसे बप्प-चमूप उत्पन्न हुआ । (उसकी प्रशंसा)। उसका गुरु-कुल-गौतम गणधरकी परम्परामें विख्यात मलधारिदेव हुए, जो कुन्दकुन्दान्वयी थे। उनके शिष्य शुभचन्द्रदेव बोप्पके गुरु थे । गंगमण्डलाचार्य प्रभाचन्द्र-देव-संद्धान्तिक उसके पूजनीय गुरु थे। यह जिनमन्दिर-जिसकी शोभा रजतमय कैलाशके समान थीवोपदेवने दोरसमुद्रके वीचमें बनवाया । गङ्गराज (अपने पिता) की मृत्युके स्मारकमें (उक्त तिथिको) बोपने मूर्तिकी स्थापना की, प्रतिष्ठापक नयकीर्ति सिद्धान्त-चक्रवती थे। (उनकी प्रशंसा)। श्री-मूलसंघ, देशियमाण, पुस्तक-गच्छ, कोण्डकुण्डान्वय तथा हनसोगेचलिके इस द्रोह-घरह (पाप-नाशक) जिनालयकी स्थापनाके बाद, जिस समय पुरोहित (इन्द्रलोग) चढ़ाये हुए भोजन (शेष) को विष्णुवर्द्धनके पास वसापुर ले गये, उस समय राजा विष्णुने मसणको, जो अपार सेनाके साथ उसपर टूट पडा था, हराकर मार डाला, तथा उसका सारा साम्राज्य जब्त कर लिया, और उसी समय (रानी) लक्ष्मी-महादेवीके एक पुत्र उत्पन्न हुमा, जो गुणोंमें दशरथ और नहुपके समान था, (अन्य प्रशंसाएँ), तब शि० ३१
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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