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________________ जैन-शिलालेख-संग्रह पूर्वक माडि सर्वनमस्यबागि नोळवि-सेट्टियरु कोट्ट"श्री-मूलसंघद पुस्तक-गच्छदवगैल्लरु साम्यमिल्ल इन्त् ई-धर्मव (हमेशाकी वरह मन्तिम शब्दावली और श्लोक) [जिनशासनकी प्रशसा । जिस समय वीरगम होय्सल-देव इस पृथ्वीपर राज्य कर रहे थे उस समय उनके पादपमोपजीवी, शुभचन्द्र-सिद्धान्तदेवके गृहस्थ शिष्य नोळवि-सेहि नामके पोय्सल-सेष्टि थे। देमिकन्ने सेहिने त्रिकूट-जिनालय बनवार इसके सके लिये दानमें मनहलि गाँव दिया; इसीके साथ एक उत्तम तालाय, जिसके बीचमें दानशाला थी ऐसी एक गली या सडक, दो तेलकी चमियाँ और दो बगीचे भी दिये। यह जिनालय उन्होने मूलसंघ, देसिंग-गण, पोस्तकगच्छ और कोण्डकुन्दान्वय कुक्कुटासन मलधारिदेवके शिष्य और अपने गुरु शुभचन्द्रसिद्धान्त देवको समर्पित कर दिया । वेट्ट नायकके पुत्र गण्ड-नारायण-सेहिने निर्दिष्ट दूसरी जमीन दी । यह सब दान नोळवि-सेटिने शुभचन्द्र-सिद्धान्तदेव के स्वाधीन कर दिया। और मूलसंघके पोस्तक-गच्छका जो कुछ था, उस समीको चुगी और करसे मुक्त कर दिया। (EC, IV, Krishnurajapet t), no3] २८५ श्रवणबेलगोला-संस्कृत तथा कन्नड [शक १०४५८११२३ ई०] (जै०शि० सं०, प्र. भा०) हिरे-आवलि-कन्नड [विक्रमचालुक्यका ४९ वॉ वर्ष ?=११२४ ई०] [हिरे-आवलिमें, रामलिङ्ग मन्दिरके सामने पड़े हुए पत्थरपर ] स्वस्ति श्रीमतु विक्रम-चर्पद ४ [ ] नेय साधारण ]-संवत्सरद माघ-शुद्ध ५ वृ०-चारदन्दु श्रीमन्मूल-संघद सेन-गणद
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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