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________________ ४०६ जैन-शिलालेख संग्रह वसदि....."करणकवाहारदानक दयापाल-देवर्गे धारापूर्वक ........ (सदाका अन्तिम श्लोक) मङ्गलमहा श्री श्री नमोऽहत्पा..........। ............"तन्नापिनि। मनमं तन्न वसके तन्दु बळियं सत्-क्षान्तियन् । अनेक-पुष्प-वरिष-प्रभावदि भावदि............। ."सुर-दुन्दुभिगळेसेये सूर-गणिकेय..........."पोगब्जिनेगं ॥ जकि सेट्टिय तम्मं....." [जिनशासनकी प्रासा । जिस समय (अपनी हमेशाकी उपाधियों सहित), विष्णुवर्द्धन पोयसळदेव शान्ति और बुद्धिमत्तासे अपने राज्यका शासन कर रहे थे मात्रेयगोत्रको पवित्र करनेवाले जकि-सेट्टिके 'जिन' इष्टदेव थे, अजितमुनिपति गुरु थे, पोयसल राजा थे और एचल माता थी। ___उस प्रसिद्ध जक्वि-सेटिकी गुर्वावली निन्न भाँति है: द्राविळ (इ) में........... स्वामी समन्तभद्र हुए, उनके बाद भट्टाकल, हेमसेन, उनके बाद वादिराज"... अजितसेन, परममुनिके शिष्य, पापहर मल्लिपेण मलधारी। लकि सेटिकी और भी प्रशसा । इस जवि सेहिने अपने गाँव सुकदरेमें एक 'वसदि' और उसके दक्षिण-पूर्वमे एक तालाव बनवाया । 'बसदि' और सरोवरके खर्चके लिये (लेखमें वर्णित) भूमिका दान दिया । साथमें दक्षिण-पश्चिममें स्थित एक छोटासा तालाव, देवका 'कोलग' बोझोंका खर्च और खादके गड्ढे, और तेलके कोल्हुभोंसे भाधा मन तेल, ये सब चीजें उत्सवों और आहारदानके लिये दी। ये सब चीजें दयापाल-देवको सौंप दी। जकि सेटि और उसके छोटे भाईकी प्रशंसा ।। [EC, IV, Nagamangal tis, n° 1031
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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