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________________ ३९० जैन-शिलालेख संग्रह बसदिगे विट्टी-धर्मम- । न ओसेदु कर सलिसदिईडं....! .....""ब्राह्मणन कोन्द गति समनिसुगुं॥ [जिनशासनकी प्रशंसा या स्तुति । इस समय अनेक पदोंसे अलङ्कृत वीरगङ्ग विष्णुवर्द्धन विष्टिग-होयसलदेव कोट्स तककी गङ्गवाडि ९६००० की जमीनके उपर तलकाड और कोळाल-पुरमें सुखसया-विनोदसे राज्य कर रहे थे। समन्तभद्र, देवाकलङ्क, पूज्यपाद, वादिराज, द्रविडान्वयके मल्लिपेण, श्रीपाल, और अनन्तवीर्य (इनका वर्णन किया गया है)। पुणस राज-दपडाधीशके देव जिन थे, गुरु अजित मुनिपति थे, और पोयसळ राजा उनका शासकथा । उन्होंने एक जिनमन्दिर बनवाया। पुणिसम्मकी पती पोचले थी। उनके पुत्र चावण, कोरप, और नागदेव थे। उनको क्रमसे चामराज, नाकण, और कुमरख्य भी कहते थे । वे रत्ननयमूर्तिके समान थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र चावण तथा उनकी पत्रियो अरसिकच्चे और चौण्डलेसे पुणिसमय्य और विष्टिग उत्पन्न हुए। चावन और परसिमच्नेका पुत्र पोयसळ राजाका सान्धि-विग्रहिक मन्त्री पुणिस हुआ। विहिदेवका महा-सचिव पुणिस था। विट्टिदेवने तोद लोगोको डरा रक्खा, कोग लोगोंको भूगर्भमें भगा दिया, पोलुव लोगोको करल कर डाला, मळेपाळ लोगोको मार डाला, काल नृपतिको भयभीत कर दिया और नील-पर्वतपर जाकर उसकी चोटीको जयलक्ष्मीके स्वायत्त कर दिया । पुणिस-दण्डनाथाधिपने एकवार पोसल राजाकी आज्ञा मिलनेपर नीलादिपर कब्जा कर लिया और मळेयाल लोगोका पीछाकर उनकी सेनाको कैदी बना लिया और इस तरह वह केरलाधिपति बन गया और इसके बाद फिर खुले मैदानमे आ गया। जो व्यापारी विगड गये थे, जिन किसानोके पास वोनेके लिए वीज नहीं था, जिन हारे गये किरात-सरदारोके पास कुछ भी अधिकार नहीं रह गया था और जो उसके नौकर हो गये थे, तथा सबको जिसका जो-जो नष्ट हो गया था वह सब उसने दिया और उनके पालनपोषणमें मदद की । विना किसी भय-सञ्चारके, गहोकी ही तरह, उसने गनवाडि ९६००० की वसदियोको शोभासे सजित किया।
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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