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________________ ३८६ जैन-शिलालेख संग्रह अवनिपनेतगित्तपनेन्- दवरिवर-बोलळिद वस्तुवं वेडदे भूभुवनम्बण्णिसे तिप्पूर । वृत्तियं वेडिद जिनार्चन-लुब्धम् ॥ अन्तु वेडि कुडे पडेदु गाजलूरु-कुड्डुगेरॆय् ओळगाद तिप्पूर वृत्तियं शकवर्ष १०३९ नेय हेमण(ल?)म्वि-संवत्सरद उत्तरायणसंक्रमणदन्दु तम्म गुरुगळु श्रीमूलसङ्घद काणूरग्गणद तित्रिणिक गच्छद श्रीमन्मेषचन्द्र-सिद्धान्त-देवर काल कर्चि धारापूर्वक माडि विट्ट दत्ति ॥ प्रियदिन्दितिदनेग्दे काव पुरुषग्यु महाश्रीयुं अक्के इदं कायदे काव्य पापिगे कुरु-क्षेत्रोचियोळ् वाणरासियोळ् एकोटि-मुनीन्द्रर कविलेयं वेदाढ्यरं कोन्ददोन्द्अयसं सार्गुमिदेन्दु' सारिंदपुव ई-शैलाक्षरं सन्ततं ॥ [EC, III, Malavalla t), n° 31] [जिनशासनकी प्रशंसाके बाद पोयसल राजामोके वंशकी प्रशंसा । इसी वशमे विनयादित्य उत्पन्न हुआ उसकी प्रशसा । उससे और उसकी पत्नीसे एरैयङ्ग उत्पन्न हुमा । उसकी पत्नी एचलदेवी । उनसे बल्लाल, विष्णु, और उदयादित्य उत्पन्न हुए। उनमेसे बीचके विष्णुने पूर्व समुद्रसे पश्चिमतक सारी पृथ्वीपर कब्जा किया। उसके पराक्रमकी ज्वालाओस मजबूत छोटे शाही किले कोयतूर, तलवनपुर (जो कि रायरायपुरका ही दूसरा नाम है) नष्ट हो गये। उस समय वीरगन विष्णुवर्द्धन होयसलदेव अपनी चरमो नतिपर पहुँच कर राज्य कर रहे थे । एचि-राजाके पिता मार, माता माकणब्वे और पत्नी पोचिकन्नेकी प्रशसा । उनके पुत्र महाप्रधान एव दण्डनायक गङ्गराज हुए। चोलके अधीनस्थ शासक इडियम और दूसरे लोगोने जब चोल राजाके दिये हुए प्रदेशको देनेसे इन्कार कर दिया तब गह-चमूप (गङ्गराज) ने उनस वह प्रदेश लढाई लड़कर ले लिया। अकेले ही गङ्गसजने नरसिंग वर्म भोर
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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