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________________ २९६ जैन - शिलालेख संग्रह क्कमल्लिई ऋषि-समुदायदाहार-दानक्क पूजा-विधानक्कमागे नन्नि सान्तरदेवनुमोड्डमरसनु वम्म- देवनु चट्टल-देवियुमाचार्य्यर कमळभद्र-देवर काल का धारा - पूर्व्वकमा सम्बन्धिय समुदाय -मुख्यमागे माडि कोट्ट ग्रा ........ ( यहाँ दान और सीमामोकी विस्तृत चर्चा है । ) [ जिन शासनकी प्रशंसा । ( उक्त मितिको ), जब ( हमेशा के चालुक्य पदो सहित) त्रिभुवनमदेवका राज्य सब ओर प्रवर्द्धमान था - तत्पादपद्मोपजीवी, महामण्डलेश्वर, उत्तर- मधुराधीश्वर, पहिपोम्वुर्थ-पुरवरेश्वर, महोग्र-वंशललाम, जिसने पद्मावती देवीके प्रसादसे 'तुला पुरुष,' 'महादान' और 'हिरण्यगर्भ' ये तीन दान पूरे किये थे, सान्तर-कुल- कुमुदिनी के लिये प्रदीप्त किरणोवाला चन्द्रमा, जिनपादाराधक, सान्तरादित्य, नीतिशास्त्रज्ञ, - महामण्डलेश्वर नन्नि-सान्तर देव था । इसकी प्रशसा | नन्न- सान्तर - देवकी वंश परम्परा इसप्रकार थी. - उत्तर- मधुराका अधीश, उग्र-वशोत्पन्न राह राजा था, जो [ महा ] भारतके युद्धमे कुरुक्षेत्रमे लडा था और जीतनेपर जिसे नारायणने प्रसन्न होकर एक शंख और वानर-ध्वज दिया था। इसके बाद बहुत-से राजा हुए, उन सबके बाद, एक सहकार नामका राजा हुआ, जो अन्तमे नरमांसभक्षी हो गया । उससे और श्रियादेवीसे जिनदत्त उत्पन्न हुआ, जो अपने पिता के आचरण से ग्लानि प्राप्त होकर दक्षिणमे आया और जिसके सिंहरथ नामके असुरके मारनेसे जकियव्त्रे (देवी) प्रसन्न हुई और प्रसन्न होकर उसने उसे सिंहका लान्छन ( मुद्रा ) दिया । अन्धकासुर नामके असुरको मारने से उसने अन्धासुर नामका नगर बसाया । कनकपुरमें आकर उसने कनकासुर का वध किया, तथा कुन्दके किलेमे रहनेवाले कर और करदूषण के भगा देनेसे पद्मावती देवी प्रसन्न हुई और प्रसन्न होकर उसने वहाँ कनकपुरमे, जो कि पोम्बु (हुम्मच ) का ही नामान्तर है, एक 'लोक' वृक्षपर वास करना शुरू किया तथा लोकियव्येका नाम धारणकर उसके लिये एक राजधानीके रूपमे शहर बसा दिया । जिनदत्त तथा दूसरे और भी राजाओ के राज्य करनेके बाद श्रीकेसि और जयकेसि हुए । श्रीकेसि
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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