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________________ जैन- शिलालेख संग्रह पसरप नररण्म-नोक्कन पोल्तपरे । ( दक्षिण मुख) चारु चरित्ररी-दोरेयरारेनि पोळिपन चन्द्रकीर्ति-भ- | ट्टारकर - शिष्यरध-हारिगळार्हत-तत्त्व-वस्तु-वि- । २८० स्तारिंगळङ्गजारिगळोप-विशेष-गुणावली-मनो- । हारिगळेम्बिन नेगळ्दरल्ते दिवाकरणन्दि-वरिगळू || वचन || उभयसिद्धान्त-चूडामणिगळु त्रैविद्य - देवरुमेनिसिट श्री दिवाकरगन्दि - सिद्धान्त - रत्नाकर - देवर शिष्यर || सकलचन्द्र-मुनि नाथरुर्व्वरा । सकलढोळ् परम-योग्यरेम्बुदम् । ककुभ-दन्तिगळ दन्तदोळ् करम् । प्रकटमागे वरेद पितामहम् || बचन ॥ सम्यक्त्व वाराशियुमेनिसिद पट्टण खामिनोकय्य-सेडियर मगम् ॥ सुन्दर रूपदिं विनयदिन्दभिमान दिनोळिपनि जना । नन्द-परोपकार - गुणदिं सुजनत्वदिनोजेयिं जगद्- । वन्दित-कीर्ति पुण्य-निधि तन्देयोळच्चिनोळोत्तिदन्ननेन्द्- । अन्देले वैश्य-वा-तिलक नेगडिन्दिर नेम् कृतार्थनो || [ वीर-शान्तरके ज्येष्ठ पुत्र तैलह देवने, जो भुजबल-शान्तर नामसे भी ज्ञात था, राजा होकर, पट्टण स्वामिके द्वारा निर्मित तीर्थद-वसदिके लिये मन्दिरके दानके रूपमें, बीजकन वयल्का, दान किया । ( शाप ) भगवदत् के द्वारा प्रतिपादित सत्य और असत्यकी प्रकृतिके प्रतिपादन करनेसे निपुण दिवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव थे, जिनके गृहस्थ - शिष्य पट्टणा स्वामी नोकय्यसेट्टि थे। उनकी और उनके गुरुकी प्रशंसा । उसके द्वार
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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