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________________ १९८ जैन-शिलालेख संग्रह शक काल ८९३ य प्रजापति-संवत्सरदन्तर्गत मार्गशिरमासद शुद्ध त्रयोदशियु गुरुवार[८]न्दुः अदं नोन्तुच्छम-हाण मेरिदर वरेटोनवर मग वि ........... [पडियर-दोरपय्यकी ज्येष्ठ रानी पाम्बध्वेने, जो कोण्डकुन्दान्त्रयके टेशिय-गणके मुरय देवेन्द्र सिद्धान्त भटारके ज्येष्ठ शिष्य चान्द्रायणदभटारके शिष्य गुणचन्द्र-भटारके शिष्य अभयनन्दि-पण्डित-देवकी (शिप्या) नाणचे कन्तिकी शिष्या थी, देशलोच करनेके बाद, तपके पूरे ३० साल पूर्ण किये, और पाँच अणुव्रतोंको धारण करके उच्च अवस्थाको पहुँची। उसके पुत्र विहि ... ... से लिखा हुआ। आगेके लोकसे उसके त्याग और तपकी प्रशंसा है। दक्षिण और पूर्व मुसकी तरफ भी ये ही लेख कुछ मेढके साथ, उसके अन्य दो पुत्रो, अद्भक्ति और वि......"के द्वारा लिखाये गये हैं। [EO VI, Kadur ti, n°1] १५१ श्रवण वेलगोला-कन्नड (विना काल-निदंशका] [देखो, जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग] १५२ श्रवण वेलगोला-सस्कृत तथा कन्नड [बिना काल-निर्देशका, लगभग ९७५ ई० (फ्लीट)] [देखो, जैन लि० ले० स० प्रथम भाग] [सुहानिया (ग्वालियर]-संस्कृत [सं० १०३४-९७७ ई.] सम्वतः । १०३४ श्री बज्रदाममहाराजाधिराज वइसाखवदि पाचमि * * * संवत् १०३४ की वैशाख वदी ५ को महाराजाधिराज वनदाम (शेषलेत स्पष्ट नहीं है।)। [JASB, XXXI, P 399, ४, 411, t.]
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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