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________________ पण चालु राख्यु. परंतु, एकंदर तार्किकवरेण्यमुनिश्री सौभाग्यचंद्रजीए अविरत यल लङ्ग पोताना ताजा माननो पुरतो लाभ प्रापेल के अने अफवांचन विगेरे कार्यनो वोजो ठेठ सुधी सेव्यो के. _मारी तवीयतने कारणे संस्कृतछाया बनाववानो प्रयत्न मुनिश्रीनो होवाथी छायासंयोजक तरीके तेनुंज नाम दाखल कर मने पोताने योग्य लाग्यु के मुनिश्री चुनीलालजीए पण प्रुफ वांचनमा महत्त्वनो भाग लीधो के तेथीज पाटली त्वराथी आ पुलक प्रगट थइ शक्यु छे. श्रा रीते मारी योजनानो श्रा विभाग प्रगट थती जाइ मने संतोष उपजे छे. शासनदेवनी कृपा थशे तो अनुकुळताए वीजा उपयोगी विभागो पण प्रकाशमा प्रावशे. विशेषमा संस्कृत स्तोत्र संग्रह तथा तत्वार्थसूत्र मूळपाठ दाखल करवा छतां श्रा पुस्तकनुं मूळ जे नाम हतुं तेज अर्थात् “जैन सिद्धांत पाठमाळा" ज राखेल के. ___व्याकरण नियम माटे सूचन ए के मूळसूत्रनी भाषा प्राकृत साहित्यथी भिन्न पडती होइ केटलाक विद्वानोए सूत्र भाषाने अर्धमागधी तरीके अोळखावी छे तेथी प्राकृत नियमावलीथी भिन्न रूपो माटे शंकाने स्थानज नथी तोपण पूर्वाचार्योए मुद्रित करेली प्रतीने अनुलक्षी मूळपाठमां क्वचित् सुधारणाने पण स्थान प्राप्यु के ___ अंतिममा एकज वस्तु जणाववानी ते एज के दृष्टिदोषथी रही गयेल त्रुटिश्री प्रति सहृदयी विद्वद् वर्ग लक्ष्य खेंचाचशे तो नवी आवृत्तिमा तेनो जरुर अमल थशे. मुनि नानचंद्रजी.
SR No.010006
Book TitleJain Shiddhanta Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherAjaramar Jain Vidyashala
Publication Year1989
Total Pages427
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size13 MB
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