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________________ '. ८ ] ... ... ... . . . . . जैन साहित्य संशोधक . ..: [खंड २ ....... .... .. .. ....... ... ... . .... ............. हैं, जिनमें योगशास्त्रकी तरह सांगोपांग योगप्रक्रियाका वर्णन है8 । अथवा यह कहना चाहिये कि ऋग्वेदमें जो परमात्मचिन्तन अंकुरायमाण था वही उपनिषदोंमें पल्लवित पुष्पित हो कर नाना .. शाखा-प्रशाखाओंके साथ . फल अवस्थाको प्राप्त हुवा । इससे उपनिषदकालमें योगमार्गका पुष्टरूपमें पाया जाना स्वाभाविक ही है। ... ___ उपनिषदोंमें जगत, जीव और परमात्मसम्बन्धी जो तात्विक विचार है, उसको भिन्न भिन्न ऋपियोंने अपनी.. दृष्टिसे सूत्रोंमें अथित किया, और इस तरह उस विचारको दर्शनका रूप मिला । सभी दर्शनकारोंका आखिरी उद्देश . मोक्ष* ही रहा है, इससे उन्होंने अपनी अपनी दृष्टि से तत्त्वविचार करनेके बाद भी संसारसे छुट कर मोक्ष.पानेके ..:: साधनांका निर्देश किया है। तत्त्वविचारणामें मतभेद हो सकता है, पर आचरण यानी चारित्र एक ऐसी वस्तु है जिसमें सभी विचारशील एकमत हो जाते हैं। विना चरित्रका तत्त्वज्ञान कोरी बातें हैं। चारित्र यह योगका किंवा योगांगोंका संक्षिप्त नाम है । अत एव सभी दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्रग्रंथों में साधन रूपसे योगकी उपयोगिता अवश्य .. बतलाई है। यहां तक कि-न्यायदर्शन, जिसमें प्रमाण पद्धतिका ही विचार मुख्य है,उसमें भी महर्षि गौतमने योगको स्थान दिया है1। महर्षि कणादने तो अपने वैशेषिक दर्शनमें यम, नियम, शौच आदि योगांगोंका भी महत्त्व गाया हैं2। सांख्यसूत्रमें योगप्रक्रियाके वर्णनवाले कई सूत्र हैं । ब्रह्मसूत्रमें महर्षि बादरायणने तो तीसरे अध्यायका नाम :.. ही साधन अध्याय रक्खा है. और उसमें आसन ध्यान आदि योगांगोंका वर्णन किया है योगदर्शन तो मख्यत: या योगविचारका ही ग्रन्थ ठहरा, अत एव उसमें सांगोपांग योगप्राक्रियाकी,मीमांसाका पाया जाना सहज ही है। : . । योगके स्वरूपके सम्बन्धमें मतभेद न होनेके कारण और उसके प्रतिपादनका उत्तरदायित्व खासकर योगदर्शनके .. उपर होनेके कारण अन्य दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्र ग्रन्थोंमें थोडासा योगविचार करके विशेष जानकारीके लिये जिज्ञासुओंको योगदर्शन देखनेकी सूचना दे दी है। पूर्वमीमांसामें महर्षि जैमिनिने योगका निर्देश तक नहीं किया है सो ठीक ही है, क्यों कि उसमें सकाम कर्मकाण्ड अर्थात् धूम-मार्गकी ही मीमांसा है । कर्मकाण्डकी पहुंच ____8 ब्रह्मविद्योपनिपद्, क्षुरिकोपनिषद्, चूलिकोपनिषद्, नादबिन्दु, ब्रहाबिन्दु, अमृतबिन्दु, ध्यानबिन्दु, ... तेजोविन्दु, योगशिखा, योगतत्त्व, हंस इत्यादि । देखो हुसेनकृत-Philosphy of the Upanishads . . . -प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगगः । गौ० सू० १, १, १॥-धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां . पदार्थानां साधर्म्यवैधाभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ॥ वै० सू० १, १,४॥ अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त- । पुरुषार्थः। सां० द. १, १॥-पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।... यो० सू० ४, ३३ ॥ अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् । व्र, सू. ४, ४,२२ ।-सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि . . : मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थ सू० १-१ जैन० द० ।-बौद्ध दर्शनका तीसरा निरोध नामक आर्यसत्य ही मोक्ष है। . -1 समाधिविशेषाभ्यासात् ४-२-३८ । अरण्यगुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः ४-२-४२ । तदर्थ यमनियमाभ्यासात्मसंस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः ४-२-४६॥ 2 अभिपेचनोपवासब्रह्मचर्यगुरुकुलवासवानप्रस्थयशदानप्रोक्षणदिनक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चादृष्टाय । ६-२ : ... -२ । अयतस्य शुचिभोजनादभ्युदयो न विद्यते, नियमाभावाद्, विद्यते वाऽन्तरत्वाद् यमस्य । ६-२-८ । 3 रागोपहतिर्ध्यानम् ३-३० । वृत्तिनिरोधात् तसिद्धिः ३-३१ । धारणासनस्वकर्मणा तत्सिद्धिः । ३-३२ । निरोधश्छर्दिविधारणाभ्याम् ३-३३ । स्थिरसुखमासनम् ३-३४ । 4 आसीनः संभवात् ४-१-७ । ध्यानाच्च ४-१-८ । अचलत्वं चांपेक्ष्य ४-१-९ । स्मरन्ति च... ४-१-१०। यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् ४-१-११। . . . ' 5 योगशास्त्राच्चाध्यात्मविधिः प्रतिपत्तव्यः। न्यायदर्शन ४-२-४६ भाष्य।
SR No.010005
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages127
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size9 MB
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