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________________ ६२ अंक] कुमारपाल प्रतिवोध परिचय आकृतिओ सिवाय चीजी पण तेमनी कोई कृति होय तेम अनुमान थाय छे. कारण के शतार्थ वृत्तनी वृत्तिमा कुमारपाल राजा संबंधी अर्थ करतां यदचोचाम" करीने घे पद्योटाक्यां छेजे उपलब्ध कृतिमओमा मळी आवतांनथी. कुमारपाल प्रतियोधनी रचना ग्रंथकारे मुख्यकरीने प्राकृतभापामां करी छ. छेवटना प्रस्तावमां केटलीक कथाओ संस्कृतमां आपी छे. तथा थोडोक भाग अपभ्रंश भापामां पण गुंथेलो छे. आ उपरथी लेखक प्राकृत, संस्कृत अने अपभ्रंश एमत्रणे भापाओना पांडत हता ते स्पष्ट जणाई आवे छे. ग्रंथनी रचना बहुज सरल अने भापा तहन सादी-आडंबर विनानी छे. कर्ता जोके, जेम उपर यताववामां आव्युं छे, एक उत्तम कोटिना विद्वान अने ग्रंथकार छे. परंतु तेमनी विद्वत्तानी कोई विशिष्टता आपणने आ ग्रंथमां मळी आवती नथी. • कुमारपाल प्रबंधना कर्ता जिनमंडनगाणिए पोताना प्रबंधमा अनेक स्थळे, आ ग्रंथमांना ऐतिहासिक भागनां अवतरणो टांक्यां छे. अने जयासिंह सूरिए पोताना संस्कृत कुमारपालचरित्रमा आ ग्रंथनी रचना शैलीतुं आवाद अनुकरण की छे. ते उपरथी जणाई आवे छे के पाछळना ग्रंथकारो प्रस्तुत ग्रंथ. थी सारी पेठे अवगत होवा जाईए, बुमारपालमतियोधिनी ऐतिहासिक उपयोगिता आ ग्रंथतुं महत् परिमाण अने रचना-समय तरफ दृष्टि करता इतिहास रसिक जिज्ञासुओने, आ ग्रंथमाथी कुमारपाल अने हेमचंद्राचार्यना जीवनवृत्तान्त संबंधी अशात अने अन्यत्र अनुपलब्ध एवी नवी रणवानी विशेष जिज्ञासा रहे, ए स्वाभाविक छे. अने हूं पण प्रथम एचा ज लालस ग्रंथना संपादन-भारने वहन करवा सानंद तत्पर थयो हतो. परंतु ग्रंथर्नु सायंत अवलोकन कर्या पछी मारे उदास मने जणाव पडे छे के तेवो कोई नवीन वावत, आ आटला मोटा ग्रंथमाथी मळी आवीं नथी, एटलंजनहीं परंतु प्रभावकचरित्रांतर्गत हेमचंद्रप्रवंध. प्रबंधचिन्तामणिगत कमारपालप्रथंधादि जेवा, प्रस्तुत थ करतां संक्षिप्त अने कालकृत अर्वाचीन ग्रंथोमां जेटली हकीकत, उक्त बने व्यक्तिओना संबंधमां मळी आवे छे; ते करतां पण घणी ज अल्प हकीकत या ग्रंथमा आलेखेली छे. आथी ऐतिहासिक पितो आपणने आग्रंथनी कोई पण प्रकारली विशेष उपयोगिता जणाती नयी, एम जो कहीए तो ते अयुक्त नथी. अलवत प्राकृत भापाना साहित्य-प्रकाशननी अपेक्षाए आनी उपयोगिता अवश्य स्वीकारवा लायक छ. कारण के एक तो प्राकृतसाहित्य अत्यारसुधीमा घणाज अल्प प्रमाणमा प्रकाशित थयु छ, अने वीजु हवे मुंबई युनिवर्सिटीए पोताना पठनक्रममा पालीभापानी माफक प्राकृतमापाने पण खास स्थान आपलं होवाथी ए भाषाना साहित्यना प्रकटीकरणनी धणीज आवश्यकता प्रतीत थई रही छे.तेवा प्रसंग प्राकृत भापाना आ एक महान् ग्रंथर्नु प्रकाशन ए भापाना अभ्यासिओने अवश्य आव. कार दायक थई पडशे एमां संशय नथी. * ए बे पयो नीचे प्रमाणे छे:चैलुक्येन्द्रेण चेत्ये कुचकलशनिकरर्वन्धुराः सिन्धुरस्त्रीस्कन्धारूढा विधातुं जिनजननमहे सूतिकर्मप्रपञ्चम् । पटपञ्चाशत्समीरप्रमुखनिजानिजाचारचातुर्यास्फुर्जन्माणिक्यहेमाभरणकवाचताथाकरे दिक्कुमार्यः ।। द्वात्रिंशत्रनिदशाधिपा नपगृहात चैसे द्विपाध्यासिताः कल्याणाभरणाभिरामवपुपः कल्याणकाद्युत्सवे । यात्रं कर्तुममर्त्यशैलशिराम स्वर्गादिवाभ्याययुस्तन्मध्ये च कुमारपालनृपतिर्भजेऽच्युतेन्द्रश्रियम् ॥ १जुओ मुनि श्रीचतुरविजयजी संपादित कुमारपालप्रबंध-पृ. १०, १७,५८,८०,९०, ९४, ९५,९५, १०६, १०७, १११इत्यादि.
SR No.010004
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year
Total Pages137
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size11 MB
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